पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

छठां पाठ मनोयोग शरीर के द्वारा जितने काम किए जाते हैं उन सब में मन का लगाव अवश्य रहता है। जिन में मन प्रसन्न रहता है वे ही उत्तमता के साथ हो। हैं। और जो उस की इच्छा के अनुकूल नहीं होत वह वास्तव में चाहे अच्छे कार्य भी हों किन्तु भले प्रकार पूर्ण रीति से सम्पादित नहीं होते। न उन का कर्ता ही यथोचित आनन्द लाम करता है। इसी से लोगों ने कहा है कि मन शरीर रूपी नगर का राजा है और स्वपाव इस का चंचल है, यह यदि स्वच्छन्द रहे तो बहुधा कुत्सित ही मार्ग में घावमान रहता है । और यदि रोका न जाय तो कुछ काल में आलस्य और अकृत्य का व्यसन उत्पन्न कर के जीवन को व्यथं एवं अनर्थपूर्ण कर देता है। इसलिए इसे यत्नपूर्वक दबाए रहना चाहिए, अनि जिस बात की यह इच्छा करे उस के विपरीत ही आचरण रखना चाहिए, जिम से यह स्वेच्छाचारी न रह कर वशवर्तिता का अभ्यासी हो जाय । यह रोति हमारी समझ में केवल उन महात्माओं ही के लिये अत्युत्तम है जिन्हों ने संसार से कोई प्रयोजन नहीं रक्खा, किंतु जिन्हें जगत में रह कर प्रशंसनीय जीवन का उदाहरण है, उन के पक्ष में राजा को दबाव मे रख कर खेदित करना ठीक नहीं है। ऐसा करने से शरीर में स्फूर्ति नहीं रहती, जो कर्तव्य मात्र का मूल है । अतः इसे युक्ति के साथ ऐसा बना लेना चाहिए कि प्रत्येक करणीय कार्य में प्रसन्नतापूर्वक संलग्न हो जाया करे । इस के लिए प्रथम कर्तव्य यह है कि इसे उत्साहरहित वा परम क्लेशित कभी न रहने दे। किसी न किसी उत्तम एवं लाभदायक विचार में प्रतिक्षण लगा हो रक्खे अर्थात् आवश्यक कर्तव्यों की पूर्ति के समय तो प्रत्येक कार्य के प्रत्येक अंश पर भली भांति ध्यान दे और जब कोई काम न हो तब कोई साथ एसा ले बैठा करे जिस में विचारशक्ति का अवश्य काम पड़ता हो, जैसे गणितशास्त्र और काव्यशास्त्र इत्यादि, जिन में सोचे बिना काम ही नहीं चलता और सोचते हुए आनंदप्राप्ति की आशा तथा विचार के साफल्य में आनंद का लाभ भी अवश्य होता है। यहां यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जो सोच विचार रुचिपूर्वक किए जाते हैं वे देह की क्षीणता अथच चित्त की मलिनता का हेतु कदापि नहीं होते, वरंच हृष्टता एवं पुष्टता संपादन करते हैं । इस से इस प्रकार के सोच को सोच न समर' कर मन बहलाव की कोटि में गिनना उचित है। और जब इस से जी उचटे तब किसी बुद्धिमान के साथ संभाषण में संलग्न होना योग्य है, जिस का फल प्राय: सभी जानते हैं कि हृदय की संतृष्टि और विचार की पुष्टि अवश्य लब्ध होती है। इस से भी मन उकताय तो प्रकृति के किसी अंग की वर्तमान दशा देख कर उस के पूर्वापर कार्य कारणादि को आलोचना कर्तव्य है।