पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५०५

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सुचाल-शिक्षा]
४८१
 

सुचाल-शिक्षा ] ४८१ भोजन के लिए घुवां और आंच वा इनानि सहनी पड़ती है, व्यायाम में हाथ- पांव पीडिन होने हैं, विद्योतर्जन में शि: बालाओ ताडना अंगीकार करनी होती है, किन्तु परिणाम में मन की दृष्टि, तन की पुष्टि और जीवन की सार्थतामा निम्मन्देह प्राप्त हो जाती है। इसी प्रकार ग. मन को मुरथगामी बनाने के लिए यदि कुछ दिन अनिछा का सामना करना पड़े तो क्या हानि है ? परिणाम में तो लाभ हो हो गा। जब उपर्युक्त प्रकार के सद्विचार में अभ्यास हो जायगा तब आरम्भिक कष्ट परमानन्द में परिवर्तित होने का पूर्ण विश्वास है । क्योंकि अभ्यास वह गुण है जो वस्तु एवं व्यक्ति मात्र को कुछ ही काल में कुछ का कुछ बना देता है। इसलिए जहां पढ़ने लिखने आदि में कष्ट महते हो, वहां मन को सुयोग्य बनाने में भी त्रुटि न करो, नही दिव्य जीवन लाभ करने मे अयोग्य रह जायोगे । इस से सब कर्तव्यों को भांति उपर्युक्त विचार का अभ्यास भी करते रहना मुख्य कार्य ममझो तो थोड़े ही दिन में मन तुम्हारा मित्र बन जायगा और सर्वकाल उत्तम पथ में विवरन करने तथा प्रोत्साहित रहने का उसे स्वभाव पड़ जायगा तथा दैवयोग से यदि कोई विशेष खेद का कारण उपस्थित होगा, निमे नित्य के अभ्यस्त उपाय दूर न कर सके, उस दशा मे भी इतनी घबराहट तो उपजेगी ही नहीं जितनी अनभ्यासियों को होती है, क्योकि रिवार शक्ति इतना अवश्य समझा देगी कि सुख दुःख सदा आया हो जाया करते हैं और अन्त में सभी लोग धैर्य धारण कर लेते हैं। ऐसा न हो तो मगन् के व्यवहार एक दिन न चल सकें, अतएव यदि पढ़े लिखे सवार दहलाने वाले भी साधारण समुदार ही की ति जितामग्न हो जाये तो रन मे और तरों में भेद क्या रहेगा? इस पर भी यदि तुम यह विचार रकगेगे कि दैवी घटना की उपस्थिति के समय जब तक चित्त अपने पुराने ढरें पर न आ जाय तन तक उम की प्रसन्नता के अर्थ गीत वादित्र, परि- भ्रमण, परिहास दि निर्दोष मनोबिनोट का आश्रय ले लेना भी सहायों का परम कर्तव्य है, तो फिर कोई सन्देह नहीं है कि तुम्हाग मन तुम्हारे समस्त बुद्धिसंगत कामों में प्रसन्नता-पूर्वक संलग्न रहना सीख जायगा और असाधारण जीवन के लिए इसी को परमावश्यकता है। सातवां पाठ निलिप्तता संसार में ऊंच-नीच, भले बुरे, श्रद्धाकारक तथा प्रसारक इत्यादि सभी प्रकार के रूप गुण स्त्रमावादि वाले पुरुष एवं पदार्थ होते हैं, अब समयानुसार सभी से कुछ न कुछ काम पड़ा करता है, इस से बुद्धिमान को उचित है कि किसो को हटपूर्वक त्याज्य और ग्राह्य न समझ बैठे, वरंच सभी के दोष गुण का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने में