पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५१

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२९ मुक्ति के भागी ] 'का बनिया बक्काल आहिन' । जब तक मांगे जांचे एक पहर भी खाने को जुड़ना जाय तब तक घर से निकलना जानते ही नहीं। कही जब भूखों मरने लगेंगे तब पंखा कुली की नौकरी के लिये म्लेच्छों की खुशामद करेंगे, पर पहले टिर के मारे पही कहा करेंगे 'का पुरिखन के देहरी छाड़ देन' । गांव सहाय कही कौन बैठा है ? यदि हो भो तो यह 'कनवजिवा ह्र के केह ससुर के आगे अधीनी बतायं' । इससे कोई यह न समझे कि यह रुपये की परवाह नहीं करते । नहीं, रुपये के वास्ते तो जौने धाकर के तलाए का पानी न लेते रहे उसी के यहां बेटे का ब्याह करके कच्ची पक्की खायेंगे, पर कब ? जब देखेंगे कि कहीं ठिकाना नहीं रहा । पहिले से अपना हिताहित विचारने की सौगन्ध है। खं० १, सं० ८ ( १५ अक्टूबर सन् १८८३ ई.) मुक्ति के भागी एक तो छः घर के कनवजिए, क्योकि वैराग्य इनमें परले सिरे का होता है। सब जानते हैं कि स्त्री का नाम अङ्गिी है। वे पढ़े लिखे लोग तक आपस मे पूछते हैं 'कही घर का क्या हाल है ?' इससे सिद्ध हुआ कि घर श्री ही का नामान्तर है। उस स्त्री को यह महा २ तुच्छ समझते हैं । यहाँ तक कि 'हेः मेहरिया तो आय पायें के पनहीं' । बरंच पनही के खो जाने से तो रुपया घेली का सोच भी होता है परन्तु श्री का बहुतेरे मरना मनाते हैं। अब कहिए, जिसने अपने आधे शरीर एवं गृह देवता को भी तृणवत् समझा उस परम त्यागी बैरागी की मुक्ति क्यो न होगी? दूसरे अढ़तिए, क्योंकि प्रेतत्व जीवे ही जी भुगत लेते हैं । न मानो कानपुर मा के देख लो । बाजे बाजों को आधी रात तक दतून करने की नौबत नहीं पहुंचती। दिन रात पारियों को हाव २ में यह भी नहीं जानते कि सूरज कहां निकलता है । मला जिसे जगत् गति व्यापती ही नहीं, जिसे क्षुधा तृषा लगती ही नहीं है, उस जितेन्द्री महापुरुष को मुक्ति न होगी तो किसे होगी जी? तीसरे उपदंश रोगवाले, क्योकि बड़े २ वैद्यों ने सिद्ध किया है कि इस रोग से हड्डियों तक में छिद्र हो जाते हैं । तो कपाल में भी हड्डी ही है। और सुनो, फारसी में इसका नाम आतशक है। शरीर को भीतर ही भीतर फूंक देती है। अब समझने की बात है कि जिसके प्राण ब्रह्मांड (शिर ) फोड़ के निकलें तथा जो पंचाग्नि की परदादी प्रतिलोमाग्नि का सेवन करेगा यह परमयोगी, वह शरभंग रिषि के समान उपस्वी मोक्ष न पावेगा!