पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५१८

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तेरहवां पाठ अंतरात्मा का अनुसरण मनुष्य के द्वारा जितने कार्य होते हैं वे सब दो प्रकार के हुआ करते हैं । एक भले दूसरे बुरे । यद्यपि सूक्ष्म विचार के अनुसार प्रत्येक भले कार्य में भी कुछ न कुछ बुराई और बुरे में भी थोड़ी बहुत भलाई का अंश अवश्य रहने के कारण किसी काम को भी पुर्ण रूप से भला वा बुरा नहीं कह सकते, पर तो भी बुद्धिमानों का यह निर्धार अयुक्त नहीं है कि जिस में भलाई का अंश अधिक हो वह भला और जिस मे बुराई का भाग बहुत हो वह बुरा काम है, पर यतः भलाई और बुराई के अंश का भी ठीक २ निर्णय करना सहन नहीं है अतः यह एक सिद्धांत कर लिया है कि जिन कामों में अपने वा पराए धन बल प्रतिष्ठादि की हानि अथवा शारीरिक वा मानसिक क्लेश हो वे बुरे और इस के विपरीत लक्षण वाले भले कार्य हैं। जो लोग समझते हैं कि जिन कामों से किसी की हानि लाभ, सुख दुःख नहीं होता, वे भले वा बुरे क्यों कर कहे जा सकते हैं ? उन्हें समझना चाहिए कि कुछ न हो तथापि उन के द्वारा अपना समय पर्थ नष्ट होता है जिस को हानि लाखो द्रव्य और वर्षों के परिश्रम से भी पूरी नहीं हो सकती। इसलिए ऐसे कार्य भी जो स्थूल दृष्टि से भले वा बुरे नहीं जान पड़ते, वस्तुतः बुरे ही हैं और सदाचारियों के पक्ष में त्यागने ही योग्य हैं । किन्तु कष्ट और हानि का पूर्ण ज्ञान भी प्रत्येक व्यक्ति को नहीं होता है। एक समुदाय जिस बात में अपनी क्षति समझता है, दूसरा उसी में वृद्धि मानता है। जैसे बहुत से पढ़े लिखों की समझ में जाति भेद और खाद्याखाद्य इत्यादि का विवेक मिटा देना ही उन्नति का मूल है और स्वयं उस के आचरण का उदाहरण बन जाना स्वतंत्रता, वीरता बुद्धिमत्ता, देशहितैषितादि के जहाज का मस्तूल है । अथच बहुत से विद्या बुद्धिविशारद के मत में अपनी जाति पांति तथा अपने पूर्वजों की रीति भाँति को त्याग कर के यदि धन मान मादि प्राप्त हो तो उसे प्राप्ति न समझना चाहिए बरंच वह सत्यानाश को जड़ है। ऐसे २ उदाहरणों से विदित होता है कि भलाई और बुराई का ठीक २ जान लेना अतिशय कठिन है। जब कि किसी की बुद्धि सदा एक सी नहीं रहती और लोक समुदाय को रुचि भी भिन्न २ हुआ करती है, तो फिर कौन निश्चय कर सकता है कि अमुक ही कार्य वस्तुतः अच्छा है और अमुक ही सचमुच बुरा। इसलिए अपने जीवन का कल्याण चाहने वालों को यही उचित है कि अपनी अंतरात्मा का अनुसरण करते रहें अर्थात जिस काम के करने में अंतरात्मा प्रसन्नतापूर्वक अनुमोदन करे, उसी को अच्छा काम, ग्राह्यकर्म, सुखद कार्य वा धर्म समझें और इस के विरुद्ध लक्षण वाले को बुरा काम वा पाप जानें । यह मत हमारा ही नहीं, बरंच सभी सभ्य देशों के