पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५२१

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सुचाल-शिक्षा]
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सुचाल-शिक्षा ] ४९ का शिर चढ़ाना दूर नहीं है, जिस के द्वारा जन्म नष्ट होना बनो बनाई बात है । जिस जाति के लोगों को अपनी जाति वाले छूने तथा उन के छुए हुए पानी पान इत्यादि ग्रहण करने में छूत समझते हों, उन के पास बैठना भी अनुचित है। यदि उन में से किसी के पास कोई ऐसा ही ग्रहणीय गुण हो जो दूसरे ठोर न मिल सके तो उस के सीखने को भी प्रकाश्य रूप से जाना चाहिए और प्रकाश्य हो रीति से स्पर्श दूर करने वाली प्रचलित पद्धति का अवलंबन कर लेना चाहिए। जो लोग किसो मत के खंडन मंडन का व्यसन रखते हों, वे कैसी हो शिष्टता व साधुता दिवावै तथापि संगति के योग्य नही हैं, क्योंकि ऐसों के द्वारा दूसरों के धर्म, विश्वास तथा जातित्व में विशेष पड़ने की संभावना रहती है। इस से सब से अधिक इन में वरना वाहिए, क्योंकि कुछ न होगा तो भो ऐसों के पास बैठने से नि त हो क्लेशित और विरोध मे दूषित होगा। सारांश यह कि जिन के संसर्ग से मन को खेद, स्वभाव को दुराचरण का भय और लोक में कुचर्चा की संभावना हो, उन से दूर ही का शिष्टाचार रखना उचित है और जिन्हें बहुत लोग विद्वान, बुद्धिमान, सदाचारी, परोपकारी, भगवद् कि व्यवहार कुशल, गुणी इत्यादि समझ कर प्रतिष्ठा करते हों, उन से यत्नपूर्वक मेल बढ़ाना चाहिए। ये यदि जाति और धनादि में अपने से न्यून हों, तो भी आदरणीय हैं.. क्योंकि इन के द्वारा सुमति सुगति सत्कीर्ति इत्यादि जं वनोपयोगी सामग्री प्राप्त होने की बड़ी सुविधा रहती है। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी का वचन है कि "मति कीरति गति मूति भलाई। जब जिहिं जतन जहां जिहिं पाई ॥ सो जानेहु सतसंग प्रभाऊ । लोकहु वेद न आन उपाऊ ॥" सतसंग का अर्थ है अच्छे लोगों का संग और अच्छे भाव के साथ संग, जिस के द्वारा यदि दैवात् स विद्यादि लाभ करने का अवसर न मिल सके, तथापि चार जने यह समझ कर तो अवश्य ही श्रद्धा करेंगे कि अमुक व्यक्ति ऐसे ऐसों का साथी है, इसलिए "चाहिए अच्छों को जितना चाहिए। ये अगर चाहें तो फिर क्या चाहिए"। ऐसे लोगों को स्वयं अपने गुणों के स्थिर रखने के निमित्त सरल प्रकृति के श्रद्धालु जिज्ञासुओं की चाह रहती है। यदि जान पहिचान न हो तथापि दो चार बार के प्रणाम और स्नेह सम्भाषण में कुछ ही काल के अनन्तर मित्रता हो सकती है। फिर बस, विपत्ति मे धैर्य और प्रत्येक कर्तव्य में सुविधा लाभ करना कठिन नहीं रहता। अपनी विद्या, अनुभवशीलता तथा कार्यदक्षतादि यदि अपूर्ण भी हों तो पूर्ण हो जाना सम्भव है और न हों तो प्राप्त हो जाना दूर नहीं है। यहां तक कहिए, सत्संग की महिमा सभी सद्ग्रन्थों में पाई जाती है और उस के द्वारा सभी के सर्वाधिक कल्याण की सम्भावना रहती है, अतः समस्त कर्तव्यों के मध्य उसे भी अत्यावश्यक कृत्य समझना योग्य है। इस में कोई व्यय परिश्रम वा प्रयत्न नहीं करना पड़ता, केवल अवकाश के समय सजनों के पास जा बैठना। और वे यदि किसी कार्य में संलग्न या चिता में मग्न हों तो सरलता और नम्रता के साथ कयोपकथन करना ३२