पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५३०

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उन्नीसवां पाठ आस्तिकता इस शताब्दी में थोड़े से पूरोप के विद्वानों को ईश्वर के अस्तित्व एवं धर्मग्रन्थों के श्रेष्ठत्व से अरुचि सी हो गई है और उन्हीं की देवा देवी भारत के कुछ लोगों की प्रवृति भी नास्तिकता की ओर देखने में आती है। किन्तु विचार कर देखिए तो इस देश के लिए यह बात किसी प्रकार श्रेयस्कर नहीं हैं, क्योंकि यहां के लोग सदा से सनातन प्रथा का अवलम्वन करते आए हैं और आज भी ऐसे ही लोग तृतीयांश से अधिक हैं जो आत्मिक अथच सामाजिक हित उसी के अनुकरण में समझते हैं और वास्तव में आर्य संतान के पक्ष में वही सच्चे लाभ का हेतु है, क्योंकि उसके संस्थापक महषिगण अपने जीवन काल में विद्या बुद्धि दूरदर्शितता एवं लोक हितैषिता के लिए समस्त संमार के श्रद्धास्पद थे अथव आज भी सभ्य देशों के असाधारण परुष उनके नाम का आदर करते हैं। उन सब ऋषियों की प्रायः ईश्वर के मानने ही में अधिक सम्मत्ति पायी जाती है। यहां पर हम यह सिद्ध करना नहीं चाहते कि ईश्वर है वा नहीं, किन्तु अपने पाठकों को यह सम्मति अवश्य देंगे कि इन झगड़ों में पड़कर उसका मान लेना ही श्रेष्ठ समझें, क्योंकि बुद्धिमानों का सिद्धान्त है कि ईश्वर को वाद में ने ढूढो, बरंच विश्वास में ढूंढो । कारण यह है कि तर्क में बड़ी भारी शक्ति होती है, उसके अच्छे अभ्यासी बातों में दिन को रात और रात को दिन ठहरा देना असम्भव नहीं समझते । किन्तु यह एक ऐसा गूढ़ विषय है कि बुद्धि जितनी अधिक दौड़ाई जाय उतनी थकती हो है, ठोक निर्णय नहीं कर सकती, वरन् भ्रम को बढ़ा के समय और आत्मिक शांति को वृथा नष्ट कर देती है । अथ। इसके विपरीत आंखें मींचकर मान लेने में हृदय को एक अक- थनीय आनन्द लाभ होता है. प्रत्येक दशा में बहा भारी सहारा मिलता है और समाज में व्यर्थ का बखेड़ा उठा के आक्षेप का पात्र नहीं बनना पड़ता। अस्मात् उसके होने वाम होने के लिए पुष्ट प्रमाणों के हेतु धावमान न रहकर यों मान लेना उचित है कि यदि वह है, तब तो हमें अपना विश्वासी समझकर हमारा कल्याण करेहीगा और नहीं है तो भी उसके भय से हम यथासाध्य बुरे कामों से बचे रहते हैं, उसकी कृपा के मासरे भलाइयों की ओर थोड़ी बहुत श्रदा रखते हैं, उसे सब फाल तथा सब स्थानों पर अपना सहायक समझकर विपत्ति के समय अधोरता के कारण चित्तवृत्ति को निर्बल नहीं होने देते, इसी में क्या बुराई है ? यदि कोई कहे कि इस प्रकार का विचार साहसिकता के विरुद्ध है, तो उससे कहना चाहिए कि किसी सहारे के बिना निरी साहसिकता ही से काम नहीं चलता। अतः हम एक महान शक्ति विशिष्ट का सहारा रखते हैं। फिर