सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
सुचाल-शिक्षा]
५०७
 

सुवाल-शिक्षा ] हमारी साहसिकता में क्योंकर बाधा पड़ सकती है ? किन्तु यह बातें केवल मुख से न कहकर सच्चे जी से मानना भी उचित है कि ईश्वर सब बातों में सबसे श्रेष्ठ, सब कुछ करने में समर्थ, सबका एकमात्र स्वामी और अपने भक्तों का सब प्रकार से सच्चा सहा- यक है। उसका भजन चाहे जिस रीति से किया जाय निष्फल नहीं जाता। बस इस प्रकार के विश्वास का अभ्यास रखने से अन्तःकरण स्वयं गवाही देने लगेगा कि परमेश्वर अवश्य है, और उसके विश्वास में अप्रतक्यं शक्ति, एवं प्रेम में अनिवनीय आनन्द है, जिसका अनुभव केवल मन को होता है, वचन को वर्णन करने की सामर्थ्य नहीं। उसके रूम गुण स्वभावादि सब अनंत हैं। यह कोई नहीं कह सकता कि वह केवल ऐसा ही है, ऐसा नहीं। जो ऐसा कहने का वाना बांधते हैं वे व्यर्थ मतवाद में पड़कर सच्चे सुख से वंचित रह जाते हैं । अस्मात् जैसी अपनी रुचि हो और जाति की परम्परा हो वैसा ही उसे मानते रहना उचित है, पर सच्चाई के साथ, न कि केवल कथनमात्र से । रहे उसकी आराधना के नियम, वे वैसे ही ठीक हैं जैसे अपने यहां प्रच- लित हो क्योकि प्रत्येक आचार्य ने अपने देश और जाति के अनुकूल उन्हें बहुन उत्तमता से नियत कर रक्या है। हां, यदि कोई हमारी निज सम्पत्ति लिया चाहे तो यही कहेंगे कि अवकाश के ATE किसो स्वच्छ एवं सुदृश्य स्थान पर अकेले अथवा अपने ही से चित्त वालों के साथ बैठकर, यदि अभ्यास हो तो यों ही, नहीं तो संगीत, साहित्य सौंदर्य इत्यादि की सहायता से वित को उसकी ओर लगा के उमको महिमा और अपनी दीनता का स्मरण करने से अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है। और उसके प्रसन्न करने के लिए यों तो सभी धर्मग्रन्थों में लिखे हुए काम उत्तम है, किन्तु हमारी समझ में यतः वह जगत् भर का राजा और पिता है, अस्मात् उसकी प्रजा एवं पत्रों के हित में संलग्न रहना उसकी प्रसन्नतासम्पादन का मुख्य उपाय है। पर जगत् भर की भलाई कर सकना प्रत्येक व्यक्ति के पक्ष में सहज न होने के कारण जहां तक हो सके अपने देश भाइयों की भलाई में तन मन धन और वचन से लगे रहना आस्तिक मात्र का महा कर्तव्य है । इसके साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए कि किसी मत का खंडन मंडन वा पिसी के धर्मग्रंथ तथा आचार्यादि मान्य पुरुषों और मंदिरादि श्रद्धेय पदार्थों का अनादर करना महा नीचता है । आस्तिक्य में इन बातों से बाबा ही पड़ती है और आपस में वैमनस्य बढ़ने के अतिरिक्त कोई फल नहीं प्राप्त होना। अतः ऐसी चर्वाओं से दूर रह कर ईश्वर को अपने प्रेम एवं प्रतिष्ठा का आधार बना लो, फिर प्रत्यक्ष हो जायगा कि उस की कृपा और सहायता से कैसा कुछ सुख संतोष और सुविधा का लाभ होता है।