पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५३४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

५१० [प्रतापनारायण-ग्रंथावलो ७-मित्र वही है जो मुख पर दोष विदित कर दे और उस के छुड़ाने का यत्न करता रहे । किन्तु परोक्ष में उस की चर्चा को रोकने का पूरा प्रबंध करे तथा विपत्ति के समय सहायता से किसी प्रकार मुंह न मोड़े। ८-देश काल और पात्र का विचार किए बिना किसी विषय का निर्णय वा कोई कार्य करना अनुचित है। ९-सर्वस्व खो जाने से उतनी हानि नहीं होती जितनी निजत्व के चले जाने से होती है। १०-किसी देश वा भेष मत वा श्रेणी आदि में सभी अच्छे वा सभी बुरे नहीं होते। ____११- यह मत समझो कि अमुक व्यक्ति हमारे अमुक सुपरिचित पुरुष का संबंधी है अतः विश्वासपात्र है। प्रकृति सब की भिन्न २ होती है। १२-दूसरों के भरोसे अपना काम छोड़ के निश्चित हो हो जाने से अधिक कोई मूर्खता नहीं हैं। १३-स्वार्थपरता और लोकहितैषिता में दिन रात का सा अंतर है। १४-दो चार बार धोखा खाए बिना अनुभवशीलता नहीं आती। १५-कपट का भंडा फूट जाने पर प्रतिष्ठा जाती रहती है। १६-कृतघ्न मनुष्य से कुत्ता अच्छा होता है, क्योंकि वह रोटी देने वाले तथा युचकारने वाले के आगे पूंछ हिला के कृतज्ञता का प्रकाश अवश्य करता है। १७ –बीती हुई बातों का हर्ष शोक वृथा है। बुद्धिमान् को वर्तमानकाल के कर्तव्य का साधन और भविष्यत् का विचार करते रहना चाहिए । १८-भाग्य अथवा देव के मानने वाले अपनी वा पराई उन्नति नहीं कर सकते। अतः उद्योग का अवलम्बन श्रेष्ठ है। १९-धन और विद्या उपार्जन में यह समझना चाहिए कि हम न कभी बड्ढे होंगे न मरेंगे, पर धर्म कार्यों में मृत्यु को शिर पर सवार समझना उचित है । २०-सुख के पीछे दुःख और दुःख के उपरांत सुख अवश्य ही आता है। इस से किसी दशा में आपे से बाहर हो जाना ठीक नहीं। २१-जो गुण और पदार्थ अपने पास न हो उन की प्राप्ति और प्राप्तों की रक्षा तथा रक्षितों की बृद्धि एवं बद्धितों के उचित व्यवहार में सदा संलग्न रहना योग्य है। २२-विपत्ति से तभी तक डरना चाहिए जब तक वह पास न आ जाय, पर जब शिर पर आ पड़े तब धैर्य और निर्मयता के साथ उस का सामना करना उचित है। २३-अन्नदाता, विद्यादाता, श्वसुर और संरक्षक की प्रतिष्ठा पिता के समान कर्तव्य है। २४-निर्बलों की रक्षा के बिना बल और दुःखियों की सहायता के बिना धनकी शोभा नहीं होती।