पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५५०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

५२४ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली मधुगन करते २ छक गया! यहां तो ऐसी उलटी गति चल निकली कि 'या कांटे मो पायं लगि लीन्ही मरत जिआय' । ____द' की जादूभरी दास्तान दूर होते ही उर्दू बीबी की पूंजी देख पड़ी ! उस सड़ी बेसवा की अंदर की (भीतरी पोल) जान पड़ी ! और उसी के साथ नागरी देवी की प्रभा खुल पड़ी। द्वितीय संख्या अधूरी छोड़ तृतीया को हाथ में लिया। प्रथम पत्र के उलटते ही नागरी की 'भौं' पर दृष्टि पड़ी! फिर क्या पूछना ! नागरी गुण आगरी की मन- मोहकता खबर पड़ी ! बस ! अब तो प्रेमबंधन में बंध गए। अब न इससे छुटकारा है न कुछ चारा है 10 ___ मेरो प्रेमेच्छा इस प्रेमाधिकारो 'ब्राह्मण' के गले पड़ी। मैं हक्का बक्का हो मुंह ताकते ही रह गया। जब होश में आया तब उस (प्रेमेच्छा) से कहा-हे निर्लज्जे ! कुछ तो धीरज धरती, थोड़ा तो विचार करती । अरी गंवारी, कहां तो यह ब्राह्मणोत्तम और कहां तू 'क्षत्रात्मजा लघुतमा' 'कहां राजा भोज कहां मोमवा तेली' ! उसने (अर्थात् प्रेमेच्छा ने ) उत्तर दिया कि क्यों कलिकाल के फेरे में पड़कर प्रेमरस में विष मिलाते हो ? ब्रम्ह क्षत्र का मूल तो एक है न ! आननक कितनी क्षत्र कन्याए ब्रम्मा(गि- नियां होतो आई हैं । तिस पर इस प्रेमपं य में जात पात का बखेड़ा क्या !' इसके सुते हो मैं निरुता तो हुवा सही, इस पर दुबले पतले बाम्हग का डोल डौल देख के और उसके दुग्योद्गार सुनके सशंक हो के मैंने कहा---'अगे लड़ को इस परदेशो निजवर का कुम्हलाया हुवा कमल वदन भी देखती है ?-fक उसके प्रेम ही पर सटू हो अपना सर्वस्व खोती है ? यह तो अब तक का हो रहा है ! क्यों नाहक सौभाग्य के साथ ही वैव्य को बुलातो है ? तेरे लिलार ही में पति का सुब नहीं लिया, सो तुपको केमे प्राप्त होगा। इसने तो सदा कुमारी ही ना बेहतर है'। बालिका बोल उठी-'क्यों ऐसे कुतर्क करते हो ? सावित्री के पति प्रेम-पुनीत्व ने ही उसके प्राण- प्यारे को जम-जाल से छुड़ाया था ! वरन् दीर्घायु कर छोड़ा था। फिर मेरे भाग्य का लिखा तुमने कैसे बांचा ? प्रेदेव को कृपा से मेरा भो अहियात अवश्य ही अचल होगा', बस ! हो चुका !! टंटा मिटा !!! हे प्रेम सर्वस्व प्रताप मिश्र जी! लीजिए, यह मेरी लाली पाली हुई बालिका आपकी मेवा में आती है ! यद्यपि आप कन्नौजिया हैं तो भी दहेज की आशा छोड़ इस . परम धन्य है ऐसे पुरूपरत्नों के पवित्र जीवन को जो नागरी देवी के इतने चढ़े बढ़े भक्त हैं और प्रेम के इतने तत्वज्ञ हैं कि एक २ लेख पर इतना शीघ्र प्रेमजाल में फंस जाते हैं ! धन्य प्रेम ! ( सम्पादक ब्राम्हण ) १ यद्यपि हमें अपनी ओर से कुछ नी आशा नहीं है पर हम प्रेमी हैं इस से दृढ़ विश्वास रखते हैं कि महानुभाव रावसाहब की प्रेमेच्छा देवी के केवल आशीर्वाद से 'ब्राह्मण' के चिरायु होने की कोई सूरत निकल आना आश्चर्य नहीं है । [सं० प्रा०]