पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५५८

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली सहायता के आछत भी कभी कोई हिन्दी का पत्र छः महीने चला सके । और न आसरा है कि कनी कोई एतद्विषयक कृतकार्यत्व लाभ कर सकेगा। क्योंकि यहां के हिन्दू समु- दाय में अपनी भाषा और अपने भाव का ममत्व विधाता ने रक्खी ही नहीं फिर हम क्योंकर मान लें कि यहां हिन्दी और उसके भक्त जन कभी सहारा पावंगे। ऐसे स्थान पर जन्म ले के और खुशामदी तया हिकमती न बनके ब्राम्हण देवता इतने दिन तक बने रहे, सो एक भी स्वेच्छाचारी के द्वारा संचालित हो के, इसे प्रेमदेव की आश्चर्य लीला के सिवा क्या कहा जा सकता है ? यह प्रश्न अच्छा था अथवा बुरा, अपने कर्तव्य- पालन में योग्य था वा अयोग्य यह कहने का हमें कोई अधिकार नहीं है, न्यायशील, सहृदय लोग अपना विचार आप प्रगट कर चुके हैं और करेंगे। पर हां इसमें संदेह नही है कि हिंदी पत्रों की गणना मे एक संख्या इसके द्वारा भी पूरित थी और साहित्य ६ लिटरेचर ) को थोड़ा बहुत सहारा इससे भी मिला रहता था। इसो से हमारी इच्छा थी कि यदि खर्च पर भी निकलता रहे अथवा अपनी सामर्थ्य के भीतर कुछ गांठ से भी "निकल जाय तो भी इसे निकाले जायगे। किन्तु इतने दिन मे दख लिया कि इतने बड़े देश में हमारे लिए सौ ग्राहक मिलना भी कठिन है । यो सामर्थ्यवानों और हितैषियों की कमी नहीं है पर वर्ष भर में एक रुपया दे सकने वाले हमें सो भी मिल जाते अथवा अपने इष्ट मित्रों मे दस २ पांच २ कापी बिकवा देने वाले दम पंद्रह सज्जन भी होते तो हमें छः वर्ष में साढ़े पांच सौ की हानि क्यों सहनी पड़ती, जिसके लिए साल भर तक.कालेकांकर में स्वभावविरुद्ध बनवास करना पड़ा। यह हानि और कष्ट हम बड़ी प्रसन्नता से अंगीकार किए रहते यदि देखते कि हमारे परिश्रम को देखने वाले और हमारे विचारों पर ध्यान देने वाले दस बीस सदव्यक्ति भी हैं । पर जब वह भी आशा न हो तो इतनी मुड़ धुन क्यों कर सही जा सकती है कि महीना आरंभ हुआ और एक फिकर शिर पर सवार है-यह विषय गद्य में लिखना चाहिए यह पद्य में और इसका फल क्या होगा कि डाकखाने और छापाखाने के लिये देने को तो भर २ मुट्ठियों रुपया चाहिए पर मिलने के लिये चिट्ठी पर चिट्ठी लिखने तथा मुलाहिजा छोड़ के वेल्यूपेएबिल भेजने पर कभी किसी भलेमानस ने एक रुपया भेज दिया जिसका हम ऐसों के हाथ में एक दिन भी ठहरना असंभव है। यह झंझट सौग्ने के लिये यदि किसी को अपना समझ के मैनेजर ठहराते हैं तो या तो वह साहब बामदनी ही हजम कर बैठते हैं या बेगार का काम समझ के हमसे भी अधिक मस्त बन बैटते हैं जिसमें न किसी का चिट्ठी पत्री का जवाब है न कोई हिसाब है। इस नौति से हमैं जब देना पड़ा है गांठ ही से देना पड़ा है जिसके लिए समय पर रुपया पास न होने के कारण यंत्राध्यक्षों से झूठे वादे और चित्त की झुंझलाहट रोक के "बाबू छाहब बाबूछाहब' करना एक मामूली बात है। एक भलेमानस हमारे हानि लाभ के माझी बने थे पर जब कुछ दिन मेनेजमेंट अपने हाथ में रख के समझ गए कि इसमें हानि ही हानि है तो झट से तोते की तरह आंखें बदल बैठे। पर परमेश्वर बड़े दयामय