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पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/६०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

३८ [प्रतापनारायण-प्रन्थावली संनिवेशित कर देने को टीका लगाना कहते हैं। इससे किसी प्रकार का, सोच देखो तो किसी सत के अनुसार; दोष नहीं है। विश्वस्त लोगों से सुना गया है दक्षिण के कई एक नगरों में ब्राह्मण लोग टीका अपने अपने हाथ से देते हैं। इस क्रिया के करने से शरीर भर की गर्मी एक ही स्थान से निकल जाती है। फिर प्रथम तो शीतला निकलने का सम्भव ही नहीं रहता, यदि निकली भी तो उतना दुःखदायक प्राबल्य तो कदापि नहीं होता। यूरप देश में जब से उसका प्रचार हुआ तब से यह व्याधि प्रायः निर्मूल सी हो गई है। पर हाय हमारे देशी भाइयों की समझ पर, जो कि इस उत्तम यत्न से जी चुराते हैं। जब छोटे छोटे बालक खेल में मग्न होने के कारण बुलाने पर नहीं आते वा घर से बाहर खेला चाहते हैं तो माता पिता कहते हैं 'अरै भाग' गोदना वाले आये हैं'। मानों भूत और होआ का नाम गोदना वाले भी है। यह नहीं सोचते कि विचारे भोले भालों के हृदय में व्यर्थ का झुठा भय प्रवेश कर देना स्याने होने पर उन्हें कैसा भीर और डरपोकना बना देगा! प्रिय पाठकगण ! मरना जीना तो ईश्वर के हाथ है पर प्रय न करना बुद्धिमानों का कर्तव्य धर्म है। आप लोगों को अवश्य चाहिए कि अपने २ प्यारे बच्चो के टीका लगवा दो। यदि एक बार अच्छा न लगे तो दो व तीन बार तक इस सहज सुलभ औषधी को काम में लाओ। टीका अच्छा लगने की पहिचान यह है कि बहुधा तीसरे दिन उस ठौर पर छोटा सा लाल दाग दिखाई पड़ता है। चौथे दिन वह दाग कुछ भरा सा जान पड़ता है। पांचवें दिन वही छोटा सा फफोला हो जाता है। आठवें दिन तक बढ़ता रहता है। आकृति इस फफोले की गोल, किनारे उठे हुए, और ध्यान देके देखने से बीच में कुछ दबा सा और उसी दबाव से लेकर किनारे तक कई एक लकीरें सी होती हैं और अनुमान बारहें दिन से इस फफोले का सूखना आरंभ हो जाता है। इस बीच में बालकों को कुछ एक कष्ट भी रहेगा, उसका कुछ डर न करो। हाँ उस फफोले को फूटने से बचाये रहो। इससे आप देखोगे कि कैसा अच्छा होता है । शीतला जी का पूजन एक विश्वास की बात है। गदहों को खिलाना और जीव मात्र की रक्षा करना पुण्य का काम है। पर इन बातों से विषफोटक रोग को कोई संबंध नहीं। इसके लिये टीका दिलाना ही परमोत्तम औषधि है। शीतला शब्द का अर्थ तो किसी पंडित से पूछते । उनसे डरने का तो कोई कारण ही नहीं है । फिर जब वे विना औषधि सेवन के दया करती हैं तो क्या निश्चित उपाय का अवलम्बन करने से रुष्ट हो जायंगी? इससे यही योग्य है कि पूजा पाठ, हवन, ब्राह्मण भोजन, सब करो पर टीका दिलाने से मुंह न फेरो । यदि अपने संतानों को सच्चे जी से प्यार करते हो, उसकी रक्षा तुम्हारा अमीष्ट है, तो अवश्य इसका सेवन करो और दूसरों को भी अनुमति दो कि सब डर छोड़ के इसका सेवन करें। खं० २, सं० २ ( १५ अप्रैल सन् १८८४ ई.)