पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/६८

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली का अभ्यास करने से समझ में आ सकती है । नानक जी पंजाबी खत्री ने ( उनके यहाँ जिसे बहुत प्यार करते हैं उसे राजा अथवा गुरु कहते हैं, सो उन्होने ) प्रेमानंद में मत्त हो के परमेश्वर की अलौकिक छवि पर रीझ के 'बाह गुरू' कहा होगा, जिसको उनके बनावटी चेलों ने तथा दूसरे मतवालों ने कुछ कुछ ठहरा लिया है। इसी प्रकार अन्यान्य भक्तों की बातों का प्रयोजन खोजने से जान पड़ता है। कहाँ तक कहें, बड़ों की बात में बड़े २ अर्थ तथा बड़ी बड़ी शिक्षा होती है पर उनका समझना सबका काम नहीं है । तैसे ही इनके चरित्र भी अधिकतर सा उत्तम ही होते हैं । हो, यदि किसी विशेष कारण से मनुष्य की निवल प्रकृत्यानुसार कोई काम ऐसे हो गये जो साधारण दृष्टि में बुरे हैं तो भी उचित नहीं कि हम उन्हें नीच व कुकर्मी कहें। निर्दोष अकेला परमात्मा है । पर सर्वसाधारण लोगों के दुष्कर्मों की अपेक्षा उन लोगों में कदाचित् शतांश बुराई भी न निकलेगी। चोरी, जारी, विश्वासघात, जीव- बधादिक वास्तविक घोर पाप तो किसी के चरित्र में पाए ही नहीं जाते। फिर क्यों उन्हें तुच्छ समझा जाय । चंद्रमा में कलंक सही पर उसकी अमृतमयी किरणों तथा अपूर्व शोभा में उस कलंक से क्या हानि ? यों भी न मानों तो उनके बजन बुराई सिखाते ही नहीं है। रहे शारीरिक कम, सो अब उसमें तुम्हारी क्या क्षति ? अब उनसे तुम्हें किसी प्रकार का संबंध नहीं रहा। फिर क्यों किसी की निंदा की जाय ? कबीर जुलाहे थे तो हों, किसी कनवजिया से नातेदारी करने तो नहीं आवेगे। हमारे इतने लंबे चौड़े कथन का सारांश यह है कि दुराग्रह छोड़ के हर एक धार्मिक एवं विद्वान के सिद्धांत देखने से शारीरिक, सामाजिक और आत्मिक सहस्त्रावधि उपकार हो सकते हैं, जिनके लिये चाहिए कि हम उन उपदेष्टाओं को कृतज्ञतापूर्वक धन्यवाद दें। उन्होंने अपने जीवन का अधिकतर भाग ऐसे कामों मे बिताया है जो हमारे अनेक हित साधन में उपयोगी हैं। परंतु हाय, पक्षपाती कलहप्रिय संकीर्ण बुद्धि मतवालो ! तुमने हार जीत की धुन में ऐसा अनर्थ उठाया कि अपना सर्वस्व स्वाहा कर दिया अथच उन पूजनीय पुरुषों का महत्व मिट्टी में मिलाने पर उद्यत हो गये। हाय हाय, क्या हमारे यतिराज श्री मद्रामानुजाचार्य, शिवस्वरूप सत्याचार्य शंकर स्वामी प्रभृति ऐसे थे कि उन्हें सड़े सड़े सांसारिक क्षुद्र कीट, माया के गुलाम ( साधारण मनुष्य ) मायावादी, पाखंडी, नास्तिक इत्यादि दुष्ट वाक्य कहें। शिव शिव !! ऐसे कुवाच्य किसी को कहना महा अनुचित है, न कि ईश्वरानुरागियों को। पर किया क्या जाय, उन्हीं के संप्रदायो उन्हें गालियां खिलाते हैं । यह लोग बुद्धिमान हों तो काहे को दूसरों को कहै । क्यों अपनों को कहलावै । क्या यह भी कोई धर्म है कि किसी समाज के मान्य पुरुष को व्यर्थ दोषी ठहराना और अपने गुरुओं की अप्रतिष्टा करागा। वही अपने दोष देखते तो सब मतावलंबी तुम्हारे मित्र हो जाते और तुम्हारा तथा तुम्हारो मातृभूमि का अमित उपकार होता । भाइयों, बहुत दिन लड़ चुके, यदि भला चाहते हो तो अब भी हमारी सुनो। खं० २, सं० ३, ४ ( १५ मई, जून सन् १८८४ १०)