पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/९४

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प्रेम एव परो धर्मः धर्म शब्द का अर्थ है, जो धारण किया जाय व जो धारण करे और प्रेम शब्द का एक अर्थ है संमेलन । इस रीति से एक बच्चा भी समझ सकता है कि धर्म उसी का नाम है जिसमें दो वा अधिक पदार्थ ऐसे मिल जायें कि जिनका प्रथक होना प्रायः असंभव हो । उदाहरण के लिये हम जैसे कहें कि शर्करा का धर्म है मिठाई और गरमी । इससे यह समझा जायगा कि एक दरदरा २, उजला २, बालू के समान जो पदार्थ है उसमें गरमी और मिठाई यह दोनों गुण ऐसे हैं कि यह कहना असंभव है कि मिठाई कहाँ है, कितनी है, और गरमी कहाँ है और कितनी है । अर्थात हर दाने में, भीतर जहाँ देखो वहां मिठाई भी विद्यमान है और गरमी भी। इसी मिठाई और गरमी के संमेलन को,व कहो प्रेम को, अथवा कभी किसी प्रकार से अलग होने के असंभव को, कहा जाता है कि उसका धर्म है। अब हम कह सकते हैं कि प्रेम ही का एक देशी नाम धर्म भी रख लिया है। परंतु परम धर्म इससे अधिक है। वह कभी, कहो किसी भांति, अपने घरमी से अलग नहीं हो सकता । शक्कर का परम धर्म मिठाई और गरमी नहीं है। क्योंकि जब शक्कर ऊख में छिपी थी उस समय ऊम्ब के पत्ते में मिठाई का नाम न था। और जब गर के रूप में थी तभी यदि पानी में घोल. किसी बरतन में रख दी जाती तो, वर्ष भर एक ही दशा में रक्खी रहती तो, सिरका हो जाती जिसमें मिठाई का लेश न रहता है। अग्नि का परम धर्म जला देना कहा जा सकता है। लोग संदेह कर सकते हैं कि उसमें भी तो पानी डाल देने से दाहक शक्ति का लोप हो जाता है। पर नहीं, तब तो आग स्वयं नहीं रहती. कोयला रह जाता है। जब तक आग है, जहाँ तक आग है, वह जलाने से नहीं रुक सकती। इससे क्या पाया गया कि परम धर्म वही है जो कभी जा न सके । अब जब हम अपने हृदय से पूंछते हैं कि हमारा परम धर्म क्या है, तब चाहे करोड़ों शंका क्यों न रोके, पर सबको लात मार के हृदस्थ कोई देवता यही कहेगा कि प्रेम ! प्रेम !! प्रेम !!! इसके दो चार युक्ति और प्रमाण भी सुन रखिये जिसमें निश्चय हो जाय कि हमारा परम धर्म प्रेम ही, स्वाभाविक धर्म प्रेम ही है । और वास्तविक ( मजहबे हक्कानी व मजहबे कुदरती यानी नेचरल रिलिजन ) प्रेम ही है, क्योंकि हमारा सृजनहार परमेश्वर स्वयं प्रेम स्वरूप है। क्योंकि सब भाषा के सब धर्मग्रंथ उसे सर्वशक्तिमान कहते हैं। इस शब्द का अर्थ ही यह है, जिसमें सब प्रकार की सब सामर्थ्य हो वही ईश्वर है । "कर्तुमकत मन्यथाकतु समर्थ ईश्वरः" । अथवा हम कह सकते हैं, जिसमें एक भी शब्द का ह्रास होगा वह ईश्वर ही नहीं। तो इस नाम से सिद्ध है कि हमारी उत्पत्ति का मूल कारण ही प्रेम अर्थात यावत सामर्थ्य का ऐक्य है । साक्षात कारण को देखिये कि माता पिता का प्रेम न होता तो किसी की सूरत भी देखने में न आतौ । यों चाहे भले ही श्री पुरुष में जूता उछलोमल