पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/९६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रन्थावली करते ही रहे हैं । सतुपदेश करना भी तो भगवद्भजन ही का अंग है । फिर एकांत- वामी लोग भी परम धर्म से क्यों कर न्यारे होंगे ? हां यह कहा जा सकता है कि बाहरी बातों के प्रेम का निर्वाह नहीं कर सकते, सो वही बाहरी सुख भोजन वस्त्र इत्यादि से वंचित भी रहते हैं । जितने अंश में, बितना प्रेम का अभाव होगा उतने अंश में उतना सुख न भूतो भविष्यति । क्योंकि यह एक लड़का भी जानता है कि पाप से दव और धर्म से सुख होता है। और धर्म प्रेम ही का नाम है। अतः प्रेम ही सुव का जनक है । सोई उपर्युक्त रिचा का अभिप्राय है कि जब तक विद्वान धर्मवेत्ता तथा बलो योद्धा एवं व्यवहार कुशल और निरभिमानी सेवातत्पर सब भांति के लोग एक ही शरीर के अंग प्रत्यंग की भांति बरताव न करेंगे तब तक संसार परमार्थ कुछ भी सिद्ध नहीं होने का । बहुतेरे पांडित्याभिमानी शूद्रों से ऐसी घृणा रखते हैं कि उनका नाम भी मुंह बिदोरे बिना नहीं लेते । हम यह नहीं चाहते कि उनके साथ बेटी रोटी का व्यवहार किया जाय । यह तो विचारे मधुर भाषा मे समझा देने पर वे स्वयं न करेंगे। पर हां उनको अपना प्यारा आय्यं भाई, अनंत कामों में सहायक अथव पूर्ण कृपापात्र न समझना एक पाप है बरंच ऐसी भारी मूर्खता है जैसे कोई अपने पांव को निकम्मा समझ के काट डालने का उद्योग करे। प्रेम अर्थात् ऐक्य ही परम धर्म है। इस विषय के अनेकानेक मंत्र वेद में मिलेंगे जैसा "प्रियानांत्वाप्रिय पतिग्वंहवामहे" "शनी मित्रः" "अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्यमिषतो वशी" इत्यादि मंत्रों में प्रिय और मित्र और बशी (वश करने वाला) इत्यादि ईश्वर के नाम हो प्रेम सिद्धांत वाले हैं । "संगच्छध्वं संबदघ्वं" इत्यादि में उत्तम बरताव करना, प्रिय भाषा बोलने आदि को खुलासा आज्ञा है, जो प्रेम ही का प्रवर्तन करतो है। सबसे बढ़ के गायत्री, जो वेदों में सर्वोपरि मंत्र है और वर्गों में सर्वोपरि जाति ब्राह्मणों का तो धर्म भूषण है। हमारे बैसवारे में जहां ब्राह्मणों की अधिकता है वहां देखिए तो यद्यरि अविद्या के प्रभाव से धर्म और अर्थ से सर्वथा बंचित हो रहे हैं, तथापि इतना तो कुपड़ बालक ही नहीं वरंच पशुप्राय स्त्रियां भी जानती हैं कि “गात्री" (गायत्री) तो बाम्हन का हथियारु आय", "अरे राम ! राम ! गात्री जपे नहीं जानत ! कस बाम्हन आय !' वह गायत्री, वह वेद माता, वह हमारे ब्राह्मण की सर्वोच्च ध्वजा भी प्रेम ही उपदेश करती है। यों आयं परिपाटो के अनुसार उसका जप ऐमो गुप्त रोति से किया जायगा कि परम प्यारा बंधु भी जा करते हुए न सुने पर उममें जो प्रार्थना की जाती है, "धियो योनः प्रचोदयात्" अर्थात् जो हमारी बुद्धियों को उत्तेजित करे, इसमें समझना चाहिये कि ऐसी गुप्त रोति से एकांत में प्रार्थना की जाती है तो केवल अपने लिए होनी चाहिए थी । अर्थात् "धियोयोमेप्रचोदयात्" मेरी बुद्धि को जो बढ़ावे । पर नहीं, गायत्री के उपदेष्टा, ईश्वर या रिषी जो मानो, को यही मनशा है कि अकेले भी, यदि ईश्वरीय भी, कोई काम करो तो केवल अपने लिए नहीं बरच अपनों के लिये । यह क्या है ? उसो हमारे मूल प्रेम का दृढ़ीकरण । बस जब गायत्री स्वयं ऐक्य का उपदेश करती है तो इससे बढ़कर वैदिक प्रमाण क्या चाहिए ? पाठक अब भी "प्रेम