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की नाईं सरोकार न रक्खे या प्रेमामृत पान करके अमर हो रहे । अर्थात् दुख शोक मरण नर्कादि को समझ ले कि हमारा कुछ कर ही नहीं सकते । बस इसी से सब लोक-परलोक के झगड़े खतम हैं । यदि इन शास्त्रों के बड़े बड़े सिद्धान्तों में बुद्धि न दौड़े,तो दुनियां में देख लीजिये कि जितनी बातें दो हैं अर्थात् एक दूसरी में सर्वथा असम्बद्ध है, उन में से एक रह जाय तो कभी किसी को दुःख न हो । या तो सदा सुख ही सुख हो तो जी न ऊबै या सदा दुख ही दुख बना रहे तो न अखरे । 'दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना।' सदा लाभ ही लाभ होता रहे तो क्या ही कहना है नोचेत् सदा हानि ही हानि हो तो भी चिन्ता नहीं आखिर कहां तक होंगी? इसी प्रकार संयोग-वियोग,
स्तुति-निन्दा, स्वतंत्रता-परतंत्रता इत्यादि सब में समझ लीजिए
तौ समझ जाइएगा कि दो होना ही कष्ट का मूल है। उनमें से
एक का अभाव हो तो आनन्द है अथवा जैसे बने वैसे दोनों को
एक कर डालने में आनन्द है। भारत का इतिहास भी यही
सिखलाता है कि कौरव पांडव दो हो गए अर्थात् एक दूसरे के
विरुद्ध हो गये इसो से यहां की विद्या-वीरता, धन-बल सब में
धुन लग गया। यदि एक हो रहते तो सारा महाभारत इतिश्री
था। अन्त में पृथिवीराज जयचन्द दो होगये। इससे रहा सहा
सभी कुछ स्वाहा हो गया। यदि अब भी जहां जहां दो देखिये
वहां वहां सच्चे जी से एक बनाने का प्रयत्न करते रहिए
तो दो के साथ ही सारे दोष दुर्भाव दुख दूर हो जायंगे, नहीं दो