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तौ जो कुछ है सो हम दिखला ही चुके। इनसे जो कुछ होता है सो यदि समझ में आगया हो तो आज ही से अपने कर्तव्य पर ध्यान दो नहीं तौ इस दांत-किटाकिट को जाने दो।
इस नाम की बाबू अयोध्या प्रसाद जी खत्री मुजफ्फर-
वासी कृत पुरतक के दो भाग हमें हमारे सुहृद्वर श्रीधर
पाठक द्वारा प्राप्त हुए हैं। लेखक महाशय की मनोगति तो
सराहना-योग्य है, पर साथ ही असम्भव भी है। सिवाय
फारसी छंद और दो तीन चाल की लावनियों के और कोई
छंद उस में बनाया भी है तो ऐसा है जैसे किसी कोमलाँगी
सुन्दरी को कोट बूट पहिनाना। हम आधुनिक कवियों के
शिरोमणि भारतेन्दुजी से बढ़के हिन्दी-भाषा का आग्रही दूसरा
न होगा। जब उन्हीं से यह न हो सका तो दूसरों का यत्न
निष्फल है। बांस के चूसने में यदि रस का स्वाद मिल सके तो
ईख बनाने का परमेश्वर को क्या काम था। हां उरदू शब्द
अधिक न भरके उरदू के ढंग का सा मजा हम पा सकते हैं, और उरदू कविताभिमानियों से हम साहंकार कह सकते हैं कि हमारे यहां का काव्य भी कुछ कम नहीं है। यद्यपि कविता के लिए उरदू बुरी नहीं है, कवित्व-रसिकों को वह भी वारललना
के हावभाव का मजा दे जाती है, पर कवि होते हैं निरंकुश,