पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(९७)


उनकी बोली भी स्वच्छंद ही रहने से अपना पूरा बल दिखा सकती है। जो लालित्य, जो माधुर्य, जो लावण्य कवियों की उस स्वतंत्र भाषा में है जो ब्रज-भाषा बुंदेलखंडी, बैसवारी और अपने ढंग पर लाई गई संस्कृत व फारसी से बन गई है, जिसे चन्द्र से लेके हरिश्चन्द्र तक प्रायः सब कवियों ने आदर दिया है, उसका सा अमृतमय चित्तचालक रस खड़ी और बैठी बोलियों में ला सके, यह किसी कवि के बाप की मजाल नहीं। छोटे मोटे कवि हम भी हैं, और नागरी का कुछ दावा भी रखते हैं, पर जो बात हो ही नहीं सकती, उसे क्या करें। बहुतेरे यह कहते हैं कि ब्रजभाषा की कविता हर एक समझ नहीं सकता । पर उन्हें यह समझना चाहिए कि आपकी खड़ी बोली ही कौन समझे लेता है।

फिर, यदि सबको समझाना मात्र प्रयोजन है तो सीधी २ गद्य लिखिए । कविता के कर्ता और रसिक होना हर एक का काम नहीं है। उन बिचारों की चलती गाड़ी में पत्थर अटकाना, जो कविता जानते हैं, कभी अच्छा न कहेंगे। ब्रजभाषा भी नागरी-देवी की सगी बहिन है, उसका निज स्वत्व दूसरी बहिन को सौंपना सहृदयता के गले पर छुरी फेरना है ! हमारा गौरव जितना इसमें है कि गद्य की भाषा और रक्खें, पद्य की और, उतना एक को बिलकुल त्याग देने में कदापि नहीं। कोई किसी की इच्छा को रोक नहीं सकता। इस न्याय से जो कविता नहीं जानते वे अपनी बोली चाहे खड़ी रक्खें चाहे कुदावें, पर कवि