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न्यायशील सहृदय लोग अपना विचार आप प्रगट कर चुके हैं
और करेंगे । पर हाँ इसमें सन्देह नहीं कि हिन्दी पत्रों की गणना
में एक संख्या इसके द्वारा भी पूरित थी और साहित्य (लिटरेचर)
को थोड़ा बहुत सहारा इससे भी मिला रहता था। इसी से
हमारी इच्छा थी कि यदि खर्च भर भी निकलता रहे अथवा
अपनी सामर्थ्य के भीतर कुछ गाँठ से भी निकल जाय तो भी
इसे निकाले जायंगे। किन्तु जब इतने दिन में, देख लिया कि
इतने बड़े देश में हमारे लिये सौ ग्राहक मिलना भी कठिन है ।
यों सामर्थ्यवानों और देशहितैषियों की कमी नहीं है। पर
वर्ष भर में एक रुपया दे सकने वाले हमें सौ भी मिल जाते
अथवा अपने इष्ट मित्रों में दस दस पांच पांच कापी बिकवा
देने वाले दस पन्द्रह सज्जन भी होते तो हमें छः वर्ष में साढ़े पांच सौ की हानि क्यों सहनी पड़ती, जिसके लिये साल भर तक
काले काँकर में स्वभाव विरुद्ध बनवास करना पड़ा। यह हानि
और कष्ट हम बड़ी प्रसन्नता से अंगीकार किये रहते यदि देखते
कि हमारे परिश्रम को देखने वाले और हमारे विचारों पर ध्यान
देने वाले दस बीस सद् व्यक्ति भी हैं। पर जब वह भी आशा
न हो तो इतनी मुड़धुन क्यों कर सही जा सकती ?
शिव मूर्ति।
हमारे ग्रामदेव भगवान भूतनाथ सब प्रकार से अकथ्य