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पिता जी उनके यहाँ गये हुए थे। अन्य बातचीत होने के बाद उन्होंने अपने नौकर से बाज़ार जाकर कुछ जलेबियाँ मोल
लाने को कहा। जब वे आगईं और आदेशानुसार वे उन्हें मेरे
पिता जी के सामने जल-पान के लिए रखने लगा तो प्रताप-
नारायण जी उसके ऊपर बनावटी मुँझलाहट दिखाते हुए बोले-
'तू जानता नहीं कि तिवारी जी अन्न की मिठाई नहीं खाते'।
पर असली रहस्य तो खुल ही गया। ऐसे न जाने कितने
मज़ाक वे नित्य किया करते थे।
कानपुर में उन्होंने अपनी एक नाट्यसमिति खोल रक्खी थी। वह उस जगह थी जहाँ आज-कल सिटी टेलीग्रैफ़ आफ़िस है। उनके साथ चौबीस घंटे बैठने-उठनेवालों में तथा नाट्य- समिति के खेलों में पार्ट लेनेवाले कई सज्जन अब भी हैं। शहर के बड़े रईस स्वर्गीय बाबू बिहारीलाल, स्वर्गीय राय देवीप्रसाद जी 'पूर्ण' आदि भी उन्हीं में थे।
नाटक के खेलों में प्रतापनारायण जी स्त्री-पार्ट बहुधा लिया करते थे और उनकी अभिनय-चतुरता पर बड़ी करताल- ध्वनि होती थी। इन खेलों में भाग लेने के कारण उनकी दाढ़ी-मूछ के नये नये संस्कार अक्सर ही हुआ करते थे।
पर इन घटनाओं से यह न समझना चाहिए कि प्रताप-
नारायण जी केवल भँड़ैती-प्रवीण एक साधारण मसखरे थे।
उनकी इस कोटि की परिहासप्रियता उनकी सर्वतोमुखीप्रकृति
का एक अंगमात्र है। इसी के आधार पर उनके चरित्र पर