पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१७४

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जान पड़ती हों वहां चित्त की प्रसन्नता किस प्रकार हो सकती है। स्त्री चाहे धर्म के अनुरोध से इनकी कुचाल का सहन भी कर ले, पर लोक-लज्जा के भय से गले में हाथ डालके सैर तो कभी न करैगी, और ऐसा न हुआ तो इनका जन्म सफल होना असंभव है ! इससे मन ही मन कुढ़ने व बात २ पर खौखियाने के सिवा कुछ बन नहीं पड़ता, फिर कैसे कहिए कि आप अपने घर में स्वतंत्र हैं !

रही घर के बाहर की बात, वहां अपने ही टाइपवालों में चाहें जैसे गिने जाते हों, पर देश का अधिकांश न इनकी प्यारी भाषा को समझता है, न भेष पसंद करता है, न इनके से आंतरिक और वाहिक भावों से रुचि रखता है ! इससे बहुत लोग तो इनकी सूरत ही से क्रिष्टान जानकर मुंह बिचकाते हैं, इससे इनका बक २ झक २ करना देशवासियों पर यदि प्रभाव करे भी तो कितना कर सकता है। हां, जो लोग इनके सम्बन्धी हैं, और भली भांति ऊपरी व्यवहारों से परिचय रखते हैं वे कोट पतलून आदि देखके न चौकेंगे, किन्तु यदि इनके भोजन की खबर पा जायँ तो क्षणभर में दूध की सी मक्खी निकाल बाहर करें। छुवा पानी पीना तो दूर रहा, इन्हें देखके मत्था पटकौवल (दुवा सलाम) तक के रवादार न हों। एक बार हमने एक मित्र से पूछा कि बहुत से अन्यधर्मी और अन्य-जाती हमारे आपके ऐसे मित्र भी हैं, जिनके समागम से जी हुलस उठता है, पर यदि कोई हमारा आपका भैयाचार, नातेदार वा परिचयी