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विधर्मी हो जाता है-विधर्मी कैसा, किसी नई समाज में नाम
तक लिखा लेता है- तो उसे देखके घिन आती है । बोलने को
जी नहीं चाहता । इसका क्या कारण है ? इसके उत्तर में उन्होंने
कहा था कि वेश्याओं के तहां हम तुम जाते हैं कि कुछ काल
जी बहलावेंगे, किन्तु यदि कोई अपनी सम्बन्धिनी स्त्री का,
बाजार में जा बैठना कैसा, गुप्त रीति से भी वारविलासिनियों
का सा तनिक भी आचरण रखती हुई सुन पड़े तो उसके पास
बैठने वा बातें करने से जी कभी न बहलेगा, बरंच उसका मुंह
देखके वा नाम सुनके लज्जा, क्रोध, घृणा आदि के मारे मन में
आवैगा कि अपना और उसका जी एक कर डालें।
योंयों ही पर-पथावालम्बियों का भी हाल समझ लो। यह जीवधारियों का जाति-स्वभाव है कि इतरों में अपनायत का लेश पाकर जैसे अधिक आदर करते हैं वैसे ही अपनों में इतरता की गन्ध भी आती है तो जी बिगाड़ लेते हैं, और जहां एक मनुष्य को बहुत लोगों के रुष्ट हो जाने का भय लगा हो वहां स्वतंत्रत कहां ? अतः हमारे लेख का लक्ष्य महाशय कुटुम्ब की अपेक्षा देश-जातिवालों के मध्य और भी परतंत्र हैं।
यदि यह समझा जाय कि घर-दुवार, देश जाति को तिलां-
जलि देकर जिनके साथ तन्मय होने के अभिलाषी हैं उनमें
जा मिलें तो स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं। यह आशा निरी
दुराशा है । उच्च प्रकृति के अंगरेज़ ऐसों को इस विचार से तुच्छ
समझते हैं कि जो अपनों ही का नहीं हुवा वह हमारा क्या