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कांग्रेस के अधिवेशनों में जहाँ तक बन पड़ता था वे अवश्य
सम्मिलित होते थे।
कांग्रेस को वे साक्षात् दुर्गा का अवतार कहते थे क्योंकि 'वह देश-हितैषी देव-प्रकृति के लोगों की स्नेह-शक्ति से आविर्भूत' हुई थी।
सामाजिक सुधार के मामले में वे अपने समय से काफी आगे थे। जाति-पांति, खान-पान संबंधी झमेलों के वे घोर विरोधी थे, क्योंकि वे समझते थे कि इनकी आड़ में काफी पाखंड होता है। अनाड़ी पुरोहितों की धूर्त-लीला पर भी 'कानपुर-माहात्म्य' में उन्होंने कई लाइनें लिखी हैं:-
धरम के अगुआ बामन देउता, तिन घर वेद न निकरैं हाय॥
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'तृप्यंताम' शीर्षक प्रसिद्ध कविता में भारत की आर्थिक तथा सामाजिक अवनति का बड़ा ही हृदयग्राही चित्र मिलता है। साथ ही साथ यह भी दिखाया गया है कि अतीत काल में यह देश कैसा संपन्न था। अंत में ऐसी हीन अवस्था का ध्यान करके यही प्रार्थना करते हैं:-
"अब यह देश डुबाय देहु बसि हम बर मागें करि परनाम।"
अपने देश-प्रेम का परिचय पंडित प्रतापनारायण जी ने एक और ढंग से भी दिया है। 'यह तो बतलाइये' शीर्षक लेख