पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/३०

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में तथा अन्यत्र भी उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं को प्रयोग करने की सलाह दी है। उसमें समाज में प्रचलित प्रथाओं तथा विदेशी वस्तुओं को काम में लाने को कुत्सित ठहराते हुए छूत-छात का पाखंड फैलाने वाले बगुला भक्तों को संबोधित करते हुए वे कहते हैं:---

“यदि घर में कुत्ता, कौआ कोई हड्डी डाल दे अथवा खाते समय कोई मांस का नाम ले ले तौ आप मुंह बिचकाते हैं। पर विलायती दियासलाई और विलायती शक्कर इनको आप आरती के समय बत्ती जलाने को सिंहासन के पास तक रख लेते हैं और भोग लगा के गटक जाने तक में नहीं हिचकते।"


हिंदी-प्रेम

राष्ट्रीयता की जो झलक प्रतापनारायण जी के लेखों में मिलती है उसके साथ साथ उनका हिंदी-प्रेम भी प्रकट होता है। उनका प्रगाढ़ हिंदी-प्रेम इन पंक्तियों से पूरी तौर से टपकता है जो प्रत्येक हिंदी जानने वाले की ज़बान पर रहती है:---

"चहहु जु साँचो निज कल्यान।
तौ सब मिलि भारत-संतान॥
जपो निरंतर एक जबान।
हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान॥
तबहिं सुधरिहै जन्म निदान।
तबहिं भलो करिहै भगवान ॥
जब रहिहै निशि-दिन यह ध्यान।