चरित्र पर प्रकाश डालने के बाद स्वभावतः उनके साहित्यिक
जीवन की छानबीन करनी है।
१९ वीं शताब्दी का अंतिम भाग हिंदी की उन्नति का स्वर्णयुग था। उस समय उत्तरी भारत में साहित्य-चर्चा के कई केंद्र बन गये थे। कलकत्ते में 'भारतमित्र' के संपादन-विभाग में बड़े बड़े साहित्य-सेवियों का अड्डा रहता था, जैसे पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र, गोविंदनारायण मिश्र, जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी, अमृतलाल चक्रवर्ती, बाबू बालमुकुंद गुप्त। ये सब प्रतिभावान् लेखक थे और इनके फड़कीले लेखों से हिंदी-भाषी प्रांतों में सर्वत्र साहित्यिक रुचि उद्दीप्त होती थी।
काशी में भारतेंदु हरिश्चंद्र एक अनुपम साहित्यिक वातावरण बनाये हुए थे। वे स्वयं रसज्ञ थे और उनके प्रोत्साहन से अनेक प्रतिभासंपन्न साहित्य-प्रेमी एकत्रित हो गये थे। उनकी रचनाओं से तथा उनकी सहृदयता से प्रभावित होकर चारों ओर नये नये लेखक निकल रहे थे।
कानपुर में जो मंडली बन रही थी उसमें पंडित ललिता-
प्रसाद जी त्रिवेदी, पंडित प्रतापनारायण मिश्र आदि प्रधान थे।
इनमें प्रतापनारायण जी तो भारतेंदु के पक्के शिष्य तथा प्रेमी
थे। अपने उपास्यदेव का शिष्यत्व उन्होंने आजन्म निबाहा।
भारतेंदु पर उनकी इतनी श्रद्धा-भक्ति थी कि उन्होंने हरिश्चंद्र-
संवत् तक लिखना शुरू कर दिया था। एवं, यह कहने में ज़रा
भी अत्युक्ति न होगी कि प्रतापनारायण मिश्र के साहित्यिक