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उस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता यह थी कि अधिकाधिक शिक्षित लोगों की रुचि उर्दू और फारसी से हटा कर हिंदी की ओर आकृष्ट की जाय। ऐसी दशा में एक प्रकार के सुगम साहित्य का होना नितांत आवश्यक था। क्योंकि उसके बिना अंग्रेजीदाँ लोग एकाएक विदग्ध साहित्य की तरफ़ कभी प्रेरित हो ही नहीं सकते थे। 'ब्राह्मण' ने इस सरल किंतु रोचक साहित्य की रचना में कहाँ तक योग दिया, इसका अनुमान करने के लिए उसमें समय समय पर प्रकाशित लेखों के विषय-वैचित्र्य को देखिए।
'किस पर्व में किसकी बनि आती है', 'किस पर्व में किसकी आफत आती है', 'कलि-कोष', 'ककाराष्टक', 'घूरे के लत्ता बिनैं कनातन का डौल बाँधै', 'जन्म सुफल कब होय', 'होली है' आदि उपर्युक्त ढंग के मनबहलाव करने वाले सुबोध निबंध तथा कविताओं के अच्छे नमूने हैं ।
'किस पर्व में किस पर आफत आती है' से एक अवतरण लीजिए:---
"माघ का महीने का महीना कनौजियों का काल है। पानी छूते हाथ-पाँव गलते हैं, पर हमें बिना स्नान किये फल-फलहारी खाना भी धर्म-नाशक है। जल-शूर के मानी चाहे जो हों, पर हमारी समझ में यही आता है कि सूर अर्थात् अंधे बन के, आँखें मूँद कर लोटा-भर पानी डाल लेने वाला जल- शूर है।"