पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/६४

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इसके आगे संसार को तुच्छ समझे, दूसरे देशवालों में चाहे जैसे उत्कृष्ट गुण हों उनको कुछ न गिनके अपने में ऐसे गुण संचय करने का प्रयत्न करें कि दूसरों के गुण मंद पड़ जायँ। मात्सर्य का ठीक २ बर्ताव यह है। जो ऐसा हो जाय वही सच्चा युवक, सच्चा जवान और सच्चा जवांमर्द है। उसी की युवावस्था सफल है। पाठक तुम यदि बालक वा वृद्ध न हो तो सच्चा जवान बनने का शीघ्र उद्योग करो।


भौं ।

निश्चय है कि इस शब्द का रूप देखते ही हमारे प्यारे पाठकगण निरर्थक शब्द समझेंगे, अथवा कुछ और ध्यान देंगे तो यह समझेंगे कि कार्तिक का मास है, चारो ओर कुत्ते तथा जुवारी भौं भौं भौंकते फिरते हैं, सम्पादकी की सनक में शीघ्रता के मारे कोई और विषय न सूझा तो यही “भौं' अर्थात भूकने के शब्द को लिख मारा ! पर बात ऐसी नहीं है। हम अपने वाचकवृंद को इस एक अक्षर में कुछ और दिखाया चाहते हैं। महाशय ! दर्पण हाथ में लेके देखिये, आंखों की पलकों के ऊपर श्याम-वर्ण-विशिष्ट कुछ लोम हैं। बरुनी न समझिएगा, माथे के तले और पलकों के ऊपरवाले रोम-समूह। जिनको अपनी हिन्दी में हम भौं, भौंह, भौंहैं कहते हैं, संस्कृत के पंडित भ्र बोलते हैं। फ़ारसवाले अबरू और अंगरेज़ लोग 'आइब्रो' कहते हैं,