पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/६५

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उन्हों का वर्णन हमें करना है।

यहयह न कहिएगा कि थोड़े से रोएं हैं, उनका वणन ही क्या ? नहीं। यह थोड़े से रोएँ बहुत से सुवर्ण के तारों से अधिक हैं। हम गृहस्थ हैं, परमेश्वर न करे, किसी बड़े बूढ़े की मृत्यु पर शिर के, दाढ़ी के और सर्वोपरि मूछों तक के भी बाल बनवा डालेंगे, प्रयाग जी जायेंगे तो भी सर्वथा मुंडन होगा, किसी नाटक के अभिनय में स्त्री-भेष धारण करेंगे तौभी घुटा डालेंगे, संसार-विरक्त होके सन्यास लेंगे तो भी भद्र कराना पड़ेगा, पर चाहे जग-परलौ-हो जाय, चाहे लाख तीर्थ घूम आवें, चाहे दुनियाभर के काम बिगड़ जायं, चाहे जीवनमुक्त ही का पद क्यों न मिल जाय, पर यह हमसे कभी न होगा कि एक छूरा भौहों पर फिरवा लें। सौ हानि, सहस्र शोक, लक्ष अप्रतिष्ठा हो तौ भी हम अपना मुंह सब को दिखा सकते हैं, पर यदि किसी कारण से भौंहैं सफाचट्ट हो गई तो परदेनशीनी ही स्वीकार करनी पड़ेगी। यह क्यों ? यह यों कि शरीरभरे की शोभा मुख- मंडल है, और उसकी शोभा यह हैं। उस परम कारीगर ने इन्हें भी किस चतुरता से बनाया है कि बस, कुछ न पूछो । देखते ही बनता है । कविवर भर्तृहरिजी ने-

"भ्र चातुर्य कुंचिताक्षा, कटाक्षा, स्निग्धा, वाचो लज्जिता चैवहासः, लीला मंदं प्रस्थितं च स्त्रीणामेतद्भूषणं चायुधंच"- लिखकर क्या ही सच्ची बात दिखलाई है कि बस, अनुभव ही से काम रखती है। कहे कोई तो क्या कहे, निस्संदेह, स्त्रियों के