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पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/८२

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हितैषी, महा सत्यसंध, महा निष्कपट मित्र समझे बैठे हैं, यदि उनकी ठीक ठीक परीक्षा करने लगें तो कदाचित् फ्री सैकड़ा दोही चार ऐसे निकलें जो सचमुच जैसे बनते हैं वैसे ही बने रहें ?वेश्याओं के यहां यदि दो चार मास आपकी बैठक रही हो तो देखा होगा, कैसे २ प्रतिष्ठित, कैसे २ सभ्य, कैसे कैसे धर्मध्वजी वहां जाकर क्या क्या लीला करते हैं ! यदि महाजनों से कभी काम पड़ा हो तो आपको निश्चय होगा कि प्रगट में जो धर्म, जो ईमानदारी, जो भलमंसी दीख पड़ती है वह गुप्तरूपेण के जनों में कहां तक है ! जिन्हें यह विश्वास हो कि ईश्वर हमारे कामों की परीक्षा करता है, अथवा संसार में हमें परीक्षार्थ भेजा है उनके अन्तःकरण की गति पर हमें दया आती है। हमने तो निश्चय कर लिया है कि परीक्षा वरीक्षा का क्या काम है, हम जो कुछ हैं उस सर्वज्ञ सर्वांतरयामी से छिपा नहीं है। हम पापात्मा, पापसंभव, भला उसके आगे परीक्षा में कै पल ठहरेंगे ?

संसार में संसारी जीव निस्सन्देह एक दूसरे को परीक्षा न करें तो काम न चले, पर उस काम के चलने में कठिनाई यह है कि मनुष्य की बुद्धि अल्प है, अतः प्रत्येक विषय का पूर्ण निश्चय संभव नहीं। न्याय यदि कोई वस्तु है, और यह बात यदि निस्सन्देह सत्य है कि निर्दोष अकेला ईश्वर है तो हम यह भी कह सकते हैं कि जिसकी परीक्षा १०० बार कर लीजिए उसकी ओर से भी सन्देह बना रहना कुछ आश्चर्य नहीं है !