पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/९१

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लिए देओ' यश के लिए देओ, देवताओं के निमित्त देओ, पितरों के निमित्त देओ, राजा के हेतु देओ, कन्या के हेतु देओ, मजे के वास्ते देओ, अदालत के खातिर देशो, कहां तक कहिए, हमारे बनवासी ऋषियों ने दया और दान को धर्म का अंग ही लिख मारा है ! सब बातों में देव, और उसके बदले लेव क्या ? झूठी नामवरी, कोरी वाह वाह, मरणानन्तर स्वर्ग, पुरोहितजी का आशीर्वाद, रुजगार करने की आज्ञा वा खिताब, क्षणिक सुख इत्यादि, भला क्यों न देश दरिद्र हो जाय ! जहां देना तो सात समुद्र पारवालों तथा सात स्वर्गवालों तक को तन, मन, धन और लेना मनमोदकमात्र ! बलिहारी इस दकार के अक्षर की ! जितने शब्द इससे पाइएगा, सभी या तो प्रत्यक्ष ही विषबत् या परम्परा-द्वारा कुछ न कुछ नाश कर देनेवाले-

दुष्ट, दुःख, दुर्दशा, दास्य, दौर्बल्य, दण्ड, दम्भ, दर्प, द्वेष, दानव, दर्द, दाग़, दगा़, देव, (फारसी में राक्षस) दोज़ख, दम का आरजा, दरिन्दा, (हिंसक जीव) दुश्मनदार, (सूली) दिक्कत इत्यादि, सैकड़ों शब्द आपको ऐसे मिलेंगे जिनका स्मरण करते ही रोंगटे खड़े होते हैं ! क्यों नहीं, हिन्दी-फारसी दोनों में इस अक्षर का आकार हंसिया का सा होता है, और बालक भी जानता है कि उससे सिवा काटने चीरने के और काम नहीं निकलता । सर्वदा बन्धन-रहित होने पर भी भगवान का नाम दामोदर क्यों पड़ा कि आप भी रस्सी से बंधे और समस्त ब्रजभक्तों को दइया २ करनी पड़ी ! स्वर्ग-विहारी देवताओं को