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प्रतिज्ञा

भीं माता पर जान देते थे, चाहते थे कि यह अच्छे से अच्छा खायँ, पहने और आराम से रहें; मगर उनके पास बैठकर बालकों को तोतली भाषा में बातें करने का उन्हें न अवकाश या, न रुचि। दोस्तों के साथ गप-शप करने में उन्हें अधिक आनन्द मिलता था। वृद्धा ने कभी मन की बात कही नहीं; पर उसकी हार्दिक इच्छा थी कि दाननाथ अपना पूरा वेतन लाकर उसके हाथ में रख देते; फिर वह अपने ढङ्ग पर उसे ख़र्च करती। ३००) रुपए थोड़े नहीं होते, न जाने कैसे खर्च कर डालता है। इतने रुपयों की गड्डी को हाथों में स्पर्श करने का आनन्द उसे कभी न मिला था। दाननाथ में या तो इतनी सूझ न थी, या वह लापरवाह थे। प्रेमा ने दो ही चार महीनों में घर को सुव्यवस्थित कर दिया। अब हरेक काम का समय और नियम था, हरेक चीज़ का विशेष स्थान था, आमदनी और खर्च का हिसाब था। दाननाथ को अब १० बजे सोना और ५ बजे उठना पड़ता था, नौकर-चाकर खुश थे; और सबसे ज्यादा खुश थी प्रेमा की सास। दाननाथ को जेब-खर्च के लिए २५) देकर प्रेमा बाकी रुपए सास के हाथ में रख देती थी; और जिस चीज़ की ज़रूरत होती, उन्हीं से कहती। इस भाँति वृद्धा को गृह-स्वामिनी का अनुभव होता था। यद्यपि शुरू महीने से वह कहने लगती थीं कि अब रुपए नहीं रहे, खर्च हो गये, क्या मैं रुपया हो जाऊँ; लेकिन प्रेमा के पास तो पाई-पाई का हिसाब रहता था, चिरौरी-बिनती करके अपने काम निकाल लिया करती थी।

यह सब कुछ था; पर दाननाथ को अब भी यही शक बनी हुई थी कि प्रेमा को अमृतराय से प्रेम है। प्रेमा चाहे दानाथ के लिए

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