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प्रतिज्ञा

पर कि तुमने अपनी आँखों और बुद्धि से काम लेना छोड़ दिया है।

अमृतराय—खैर, मुझी को धोखा हुआ होगा, कभी-कभी आँखों को धोखा हो जाया करता है! मगर तुम यों ही दुबले होते चले गये, तो बड़ा मुसीबत का सामना होगा। किसी डाक्टर को दिखाइये। अगर पहाड़ पर चलना चाहो, तो मैं भी साथ चलने को तैयार हूँ।

दाननाथ—पहाड़ पर जाने में रुपए लगते हैं; यहाँ कौड़ी कफ़न को भी नहीं है।

अमृतराय—रुपए मैं दूँगा, तुम चलने का निश्चय कर लो। दो महीने और हैं, एप्रिल से चल दें।

दाननाथ—तुम्हारे पास भी तो रुपए नहीं है। ईट-पत्थर में उड़ा दिये।

अमृतराय—पहाड़ों पर सूबे-भर के राजे-रईस आते हैं, उनसे वसूल करेंगे।

दाननाथ—खूब! उन रुपयों से आप पहाड़ों की हवा खाइयेगा! अपने घर की जमा लुटाकर अब दूसरों के सामने हाथ फैलाते फिरोगे?

अमृतराय—तुम्हें आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से? मैं चोरी करके लाऊँगा, आपसे कोई मतलब नहीं।

दाननाथ—जी, तो मुझे क्षमा कीजिये, आप ही पहाड़ों की सैर कीजिये। तुमने व्यर्थ इतने रुपये नष्ट कर दिये। सौ-पचास अनाथों को तुमने आश्रय दे ही दिया, तो कौन बड़ा उपकार हुआ जाता है। हाँ, तुम्हारी लीडरी की अभिलाषा पूरी हो जायगी।

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