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प्रतिज्ञा

जाऊँ? मेरे ही मामा थे, जो मामीजी की आशा बिना द्वार से टल थे। यहाँ तक कि एक बार कचहरी का समन आया, तो अन्दर जाकर पूछने लगे---अरे सुनती हो, कचहरी से समन आया है। जायँ कि न जायँ?

सुमित्रा---अगर तुम्हारी मामी मना कर देतीं, तो न जाते?

पूर्णा---मैं तो समझती हूँ, न जाते। चपरासी ज़बरदस्ती पकड़ ले जाता।

सुमित्रा---तो तुम्हारी मामी धनी घर की बेटी होगी।

पूर्णा---कैसा धनी घर? मोल लाई गई थीं---मामाजी की पहली स्त्री मर गईं, तो ये उन्हें मोल लाये थे।

सुमित्रा---क्या कहती हो बहन! कहीं औरतें बिकती हैं?

पूर्णा---औरतें और मर्द दोनो ही बिकते हैं। लड़की का बाप कुछ लेकर लड़की ब्याहे और लड़के का बार कुछ लेकर लड़का ब्याहे; यहीं बेचना नहीं तो और क्या है? मगर लड़केवालों के लिए लेना कोई नई बात नहीं है। लड़की का बाप यदि कुछ खेकर लड़की दे, तो निन्दा की बात नहीं है। इसकी प्रथा नहीं है।

सुमित्रा---मज़ा तो तभी आये, जब लड़कीवाले भी लड़कियों का दहेज लेने लगें। बिना भरपूर दहेज लिये विवाह ही न करें। तब पुरुषों के होश ठिकाने हो जायँ। मेरा तो अगर बाबूजी विवाह न करते, तो मुझे कभी इसका खयाल भी न आता। मेरी समझ में यही बात नहीं आती कि लड़कीवालों को ही लड़की ब्याहने की इतनी गरज़ क्यों होती है।

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