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प्रतिज्ञा

यह कहते हुए कमला ने एक कदम आगे रखा और चाहा कि पूर्णा का हाथ पकड़ ले। पूर्णा पीछे हट गई। कमला और आगे बढ़ा। सहसा पूर्णा ने दोनो हाथों से एक कुर्सी उठा ली और उसे कमला के मुँह पर झोंक दिया। कुर्सी का एक पाया पूरे ज़ोर के साथ कमला के मुँह पर पड़ा, नाक में गहरी चोट आई और एक दाँत भी टूट गया। कमला उस झोंके से न सँभल सका। चारो खाने चित ज़मीन पर गिर पड़ा। नाक से खून जारी हो गया। उसे मूच्छा आ गई। इसी दशा में छोड़कर पूर्णा लपककर बग़ीचे के बाहर निकल आई। सड़क पर अब सन्नाटा था। पूर्णा को अब अपनी जान बचाने की फ़िक्र थी। वहीं उसे कोई पकड़ न ले। क़ैदी बनकर, हथकड़ियाँ पहने हुए हजारों आदमियों के सामने जाना उसके लिए असह्य था। समय बिलकुल न था। छिपने की कहीं जगह नहीं। एकाएक उसे एक छोटी-सी पुलिया दिखाई दी। वह लपककर सड़क के नीचे उतरी और उसी पुलिया में घुस गई।

इस समय उस अबला की दशा अन्यन्त कारुणिक थी। छाती धड़क रही थी। प्राण नहों में समाये हुए थे। ज़रा भी खटका होता, तो वह चौंक पड़ती। सड़क पर चलनेवालों की परछाई नाले में पड़ते देखकर उसकी आँखों में अँधेरा-सा छा जाता। कहीं उसे पकड़ने कोई न आता हो। अगर कोई आ गया, तो वह क्या करेगी? उसने एक ईट अपने पास रख ली थी। इसी ईट को वह अपने सिर पर पटक देगी। पुलिसवालों के पञ्जे में फँसने से सिर पटककर मर जाना कहीं अच्छा था। सड़क पर आने-जानेवालों की हलचल सुनाई दे रही

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