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प्रतिज्ञा

पूर्णा बूढ़े को जाते देखकर उसके मन का भाव समझ गई। क्या अब भी वह वनिता-भवन में जाने से इनकार कर सकती थी? बोली---बाबा, तुम भी मुझे छोड़कर चले जाओगे।

बूढ़ा---कहता तो हूँ कि चलो वनिता-भवन पहुँचा दूँ।

'वहाँ मुझे बाबू अमृतराय के सामने तो न जाना पड़ेगा?'

'यह सब मैं नहीं जानता। मगर उनके सामने जाने में हर्ज ही क्या है? वह बुरे आदमी नहीं है।'

'अच्छे-बुरे की बात नहीं है बाबा। मुझे उनके सामने जाते लज्जा आती है।'

'अच्छी बात है, मत जाना। नाम और पता तो लिखना ही पड़ेगा।'

'नहीं बाबा, मैं नाम और पता भी न लिखाऊँगी। इसी से तो कहती थी कि मैं वनिता-भवन में न जाऊँगी।'

बूढ़े ने कुछ सोचकर कहा---अच्छा चलो, मैं अमृत बाबू को समझा दूँगा। जो बात तुम न बताना चाहोगी, उसके लिए वह तुम्हें मजबूर न करेंगे। मैं उन्हें अकेले में समझा दूँगा।

ज़रा दूर पर एक इक्का मिल गया। बूढ़े ने उसे ठीक कर लिया। दोनो उस पर बैठकर चले।

पूर्णा इस समय अपने को गंगा की लहरों में विसर्जित करने जाती, तो कदाचित् इतनी दुखी और सशंक न होती!



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