पृष्ठ:प्रतिज्ञा.pdf/२१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रतिज्ञा

को जान से मार डाला होता। मुझे अब उसमें श्रद्धा हो गई है। जी चाहता है, जाकर उसके दर्शन करूँ। मगर अभी न जाऊँगा। सबसे पहले इन बगुलाभगतजी की ख़बर लेनी हैं!'

प्रेमा ने पति को श्रद्धा की दृष्टि से देखा। उनका हृदय इतना पवित्र है, वह आज तक वह न समझी थी। अब तक उसने उनका जो स्वरूप देखा था, वह एक कृतघ्न द्वेषी, विचारहीन, कुटिल मनुष्य का था। अगर यह चरित्र देखकर भी वह दाननाथ का आदर करती थी, तो इसका कारण वह प्रेम था, जो दाननाथ को उससे था। आज उसने उनके शुद्ध, निर्मल अन्तःकरण की झलक देखी। कितना सच्चा पश्चाताप था! कितना पवित्र क्रोध! एक अबला का कितना सम्मान!!

उसने कमरे के द्वार पर आकर कहा---मैं तो ससझती हूँ, इस समय तुम्हारा चुप रह जाना ही अच्छा है। कुछ दिनों तक लोग तुम्हें बदनाम करेंगे; पर अन्त में तुम्हारा आदर करेंगे। मुझे यही शंका है कि यदि तुमने भैयाजी का विरोध किया तो पिताजी को बड़ा दुःख होगा।

दाननाथ ने मानों विष का घूँट पीकर कहा---अच्छी बात है, जैसी तुम्हारी इच्छा। मगर याद रखो, मैं कहीं बाहर मुँह दिखाने लायक न रहूँगा।

प्रेमा ने प्रेम-कृतज्ञ नेत्रों से देखा। कण्ठ गद् गद् हो गया। मुँह से एक शब्द न निकला। पति के इस महान् त्याग ने उसे विभोर कर दिया। उसके एक इशारे पर अपमान, निन्दा, अनादर सहने के लिए

२०७