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प्रतिज्ञा

प्रेमा---तुम्हें दिल्लगी सूझती है और मुझे क्रोध आ रहा है। जी चाहता है, इसी वक्त जाकर कह दूँ कि तुम अब मेरी नज़रों से गिर गये। और लोग चाहे तुमसे खुश हुए हों, इस चाल से चाहे तुम्हें कुछ चन्दे और मिल जायँ; लेकिन मेरी निगाहों में तुमने अपनी इज्जत खो दी।

दान॰---तो चलो हम तुम दोनो साथ चलें। तुम ज़बान का तीर चलाना, मैं अपने हाथों की सफाई दिखाऊँगा।

सुमित्रा---पहले लेख तो पढ़ लो। गालियाँ दी होतीं तो लाला यों बातें न करते। अमृतराय ऐसा आदमी ही नहीं है।

प्रेमा ने सहमी हुई आँखों से लेख का शीर्षक देखा। पहला वाक्य पढ़ा तो चढ़ी हुई त्योरियाँ ढल गईं, दूसरा वाक्य पढ़ते ही वह पत्र पर और झुक गईं, तीसरे वाक्य पर उसका कठोर मुख सरल हो गया, चौथे वाक्य पर ओठों पर हास्य की रेखा प्रकट हुई; और पैरा समाप्त करते-करते उसका सम्पूर्ण बदन खिल उठा। फिर ऐसा जान पड़ा, मानो वह वायुयान पर उड़ी जा रही है; सारी ज्ञानेन्द्रियाँ मानो स्फूर्ति से भर उठी थीं। लेख के तीनो पैरे समाप्त करके उसने इस तरह साँस ली, मानो वह किसी कठिन परीक्षा से निकल आई।

दाननाथ ने पूछा---पढ़ लिया? मार खाने का काम किया है न? चलती हो तो चलो, मैं जा रहा हूँ।

प्रेमा ने पत्र की तह करते हुए कहा---तुम जाओ, मैं न जाऊँगी।

'आज मुझे मालूम हुआ है कि संसार में मेरा कोई सच्चा मित्र है, तो यही है। मैंने इसके साथ बड़ा अन्याय किया। आज क्षमा मांगूँगा, सच्चे दिल से क्षमा मांगूँगा।'

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