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प्रतिज्ञा


दाननाथ ने आश्वासन दिया कि प्रेमा कल अवश्य आयेगी। दोनों मित्र यहाँ से चले तो सहसा तीन बजने की आवाज़ आई। दाननाथ ने चौंककर कहा—अरे! तीन बज गये। इतनी जल्द?

अमृत॰—और तुमने अभी तक भोजन नहीं किया। मुझे भी याद न रहा।

दाननाथ—चलो अच्छा ही हुआ। तुम्हारा एक वक्त का खाना बच गया।

अमृत॰—अजी मैंने तुम्हारी दावत की बड़ी-बड़ी तैयारियाँ की थीं। इतना ख़र्च-वर्च किया गया और रसोइए ने ख़बर तक न दी।

दान॰—हाँ साहब, आपके ५०) से तो कम न बिगड़े होंगे! मैं बिना भोजन किये ही मानने को तैयार हूँ। है रसोइया भी होशियार। ख़ूब सिखाया है।

अमृत॰—होशियार नहीं पत्थर। दस बजे खिलाता, तो दो चपतियाँ खाकर उठ जाते। मुझे दावत करने का सस्ता यश मिल जाता। अब तो भूख खूब खुल गई है, थाली पर पिल पड़ोगे। इधर तो शिकायत यह कि देर की, उधर हानि यह कि दूने की ख़बर लोगे। मुझ पर तो दोहरी चपत पड़ गई।

घर जाकर अमृतराय ने रसोइए को ख़ूब डाटा—तुमने क्यों इत्तला नहीं की कि भोजन तैयार है?

रसोइए ने कहा—हुजूर बाबू साहब के साथ आश्रम में थे। मुझे डर लगता था कि आप ख़फा न हो जायँ।

बात ठीक थी। अमृतराय रसोइए को कई बार मना कर चुके

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