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प्रतिज्ञा

था। षोड़सी के दिन उसने वे सब गहने लाकर लालाजी के सामने रख दिये, और सजल नेत्रों से बोली--मैं अब इन्हें रखकर क्या करूँगी...

बदरीप्रसाद ने करुणा-कोमल-स्वर में कहा--मैं इन्हें लेकर क्या करूँगा बेटी? तुम यह न समझो कि मैं धर्म या पुण्य समझकर यह काम कर रहा हूँ। यह मेरा कर्तव्य है। इन गहनों को अपने पास रखो। कौन जाने किस वक्त इनकी ज़रूरत पड़े। जब तक मैं जीता हूँ, तुम्हें अपनी बेटी समझता रहूँगा। तुम्हें कोई तकलीफ़ न होगी।

षोड़सी बड़ी धूम से हुई। कई सौ ब्राह्मणों ने भोजन किया। दान दक्षिणा में भी कोई कमी न की गई।

रात के बारह बज गए थे। लाला बदरीप्रसाद ब्राह्मणों को भोजन कराके लौटे, तो देखा--प्रेमा उनके कमरे में खड़ी है। बोले--यहाँ क्यों खड़ी हो बेटी? रात बहुत हो गई, जाकर सो रहो।

प्रेमा--आपने अभी कुछ भोजन नहीं किया है न?

बदरी॰--अब इतनी रात गये मैं भोजन न करूँगा। थक भी बहुत गया हूँ। लेटते ही लेटते सो जाऊँगा।

यह कहकर बदरीप्रसाद चारपाई पर बैठ गये और एक क्षण के बाद बोले--क्यों बेटी, पूर्णा के मैके में कोई नहीं है? मैंने उससे नहीं पूछा कि शायद उसे कुछ दुःख हो।

प्रेमा--मैके में कौन है। मा-बाप तो पहले ही मर चुके थे, मामा ने विवाह कर दिया। मगर जब से विवाह हुआ कभी झाँका तक नहीं। ससुराल में भी सगा कोई नहीं है। पण्डितजी के दम से नाता था।

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