पृष्ठ:प्रतिज्ञा.pdf/४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रतिज्ञा

भक्ति का भाव रहना आवश्यक है। यदि ऐसा न होता, तो कवियों को झूठी तारीफ़ों के पुल बाँधने के लिए हमारे राजे-महाराजे पुरस्कार क्यों देते। बताओ? राजा साहब तमञ्चे की आवाज़ सुनकर चौंक पड़ते हैं, कानों में उँगली डाल लेते हैं और घर में भागते हैं; पर, दरबार का कवि उन्हें वीरता में अर्जुन और द्रोणाचार्य से दो हाथ और ऊँचा उठा देता है, तो राजा साहब की मूँछें खिल उठती हैं, उन्हें एक क्षण के लिए भी यह ख्याल नहीं आता कि यह मेरी हँसी उड़ाई जा रही है ऐसी तारीफ़ों में हम शब्दों को नहीं, उनके अन्दर छिपे हुए भावों ही को देखते हैं। सुमित्रा रङ्ग-रूप में अपने बराबर किसी को नहीं समझती।। न जाने उसे यह ख़ब्त कैसे हो गया। यह कहते बहुत दुःख होता है पूर्णा; पर इस स्त्री के कारण मेरी ज़िन्दगी ख़राब हो गई। मुझे मालूम ही न हुआ कि प्रेम किसे कहते हैं। मैं संसार में सबसे अभागा प्राणी हूँ, और क्या कहूँ। पूर्व-जन्म के पापों का प्रायश्चित्त कर रहा हूँ। सुमित्रा से बोलने को जी नहीं चाहता; पर मुँह से कुछ नहीं कहता कि कहीं घर में कुहराम न मच जाय। लोग समझते हैं, मैं आवारा हूँ, सिनेमा और थियेटर में प्रमोद के लिए जाता हूँ; लेकिन मैं तुमसे सत्य कहता हूँ पूर्णा, मैं सिनेमा में केवल अपनी हार्दिक वेदनाओं को भुलाने के लिए जाता हूँ। अपनी अतृप्त अभिलाषाओं को और कैसे शान्त करूँ, दिल की आग को और कैसे बुझाऊँ। कभी- कभी जी में आता है, संन्यासी हो जाऊँ और कदाचित एक दिन मुझे

यही करना पड़ेगा। तुम समझती होगी यह महाशय कहाँ पचड़ा ले बैठे। क्षमा करना, न जाने आज क्यों तुमसे ये बात करने लगा।

४३