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पूर्णा को अपने घर से निकलते समय बड़ा दुःख होने लगा। जीवन के तीन वर्ष इसी घर में काटे थे। यहीं सौभाग्य के सुख देखे, यहीं वैधव्य के दुख भी देखे। अब उसे छोड़ते हुए हृदय फटा जाता था। जिस समय चारो कहार उसका असबाब उठाने के लिए घर से आये, वह सहसा रो पड़ी। उसके मन में कुछ वैसे ही भाव जाग्रत हो गये, जैसे शव के उठाते समय शोकातुर प्राणियों के मन में आ जाते हैं। यह जानते हुए भी कि लाश घर में नहीं रह सकती, जितनी जल्द उसकी दाह-क्रिया हो जाय उतना ही
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