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प्रतिज्ञा

अच्छा। वे एक क्षण के लिए मोह के आवेश में आकर पाँव से चिमट जाते हैं, और शोक से विह्वल होकर करुणा-स्वर में रुदन करने लगते हैं। वह आत्म-प्रवञ्चना, जिसमें अब तक उन्होंने अपने को डाल रखा था कि, कदाचित् अब भी जीवन के कुछ चिह्न प्रकट हो जायँ, एक परदे के समान आँखों के सामने से हट जाती है, और मोह का अन्तिम बन्धन टूट जाता है, उसी भाँति पूर्णा भी घर के एक कोने में दीवार से मुँह छिपाकर रोने लगी। अपने प्राणेश की स्मृति का यह आधार भी शोक के अपार सागर में विलीन हो रहा था। उस घर का एक-एक कोना उसके लिए मधुर-स्मृतियों से रञ्जित था, सौभाग्य-सूर्य के अस्त हो जाने पर भी यहाँ उसकी कुछ झलक दिखाई देती थी। सौभाग्य-संगीत का अन्त हो जाने पर भी यहाँ उसकी कुछ प्रतिध्वनि आती रहती थी। घर में विचरते हुए उसे अपने सौभाग्य का विषादमय गर्व होता रहता था। आज सौभाग्य-सूर्य का वह अन्तिम प्रकाश मिटा जा रहा था, सौभाग्य-सङ्गीत की वह प्रतिध्वनि एक अनन्त शून्य में डूबी जाती थी, वह विषादमय गर्व हृदय को चीरकर निकला जाता था!

पड़ोस की स्त्रियों को जब मालूम हुआ कि, पूर्णा यहाँ से जा रही है, तो सब उसे विदा करने आई। पूर्णा के शील और विनय ने सभी को मुग्ध कर लिया था। पूर्णा के पास धन न था; पर मीठी बातें थीं, प्रसन्न मुख था, सहानुभूति थी, सेवा-भाव था, जो धन की अपेक्षा कहीं मूल्यवान रत्न हैं, और जिसकी प्राणियों को धन से कहीं अधिक आवश्यकता होती है। पूर्णा उन सभों से गले मिलकर विदा हुई। मानो लड़की ससुराल जाती हो।

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