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प्रतिज्ञा

उसकी समझ में आ रहा था। यह घर उसके खपरैलवाले घर से कहीं सुन्दर था। उसके कमरे में फ़र्श थी, सुन्दर चारपाई थी, आल्मारियाँ थीं। बिजली की रोशनी थी, पङ्खा भी था; पर इस समय बिजली का प्रकाश उसकी आँखों में चुभ रहा था और पंखे की हवा देह को ज्वाला की भाँति झुलसा रही थी। प्रेमा के बहुत आग्रह करने पर भी आज वह कुछ भोजन न कर सकी। आकर अपने कमरे में चारपाई पर लेटकर रोती रही। विधि उसके साथ कैसी क्रीड़ा कर रही थी। उसके जीवन-सर्वस्व का अपहरण करके वह उसको खिलौनों से सन्तुष्ट करना चाहती थी! उसकी दोनों आँखें फोड़कर उसे सुरम्य उपवन की शोभा दिखा रही थी, उसके दोनों हाथ काटकर उसे जल-क्रीड़ा करने के लिए सागर में ढकेल रही थी।

ग्यारह बज गये थे। पूर्णा प्रकाश से आँखें हटाकर खिड़की के बाहर अन्धकार की ओर देख रही थी। उस गहरे अँधेरे में उसे कितने सुन्दर दृश्य दिखाई दे रहे थे, वही अपना खपरैल का घर था, वही पुरानी खाट थी, वही छोटा-सा आँगन था; और उसके पतिदेव दफ्तर से आकर उसकी ओर सहास मुख और सप्रेम नेत्रों से ताकते हुए जेब से कोई चीज़ निकालकर उसे दिखाते और फिर छिपा लेते। वह बैठी पान लगा रही थी। झपटकर उठी और पति के दोनो हाथ पकड़कर बोली--दिखा दो क्या है? पति ने मुट्ठी बन्द कर ली। उसकी उत्सुकता और बढ़ी। उसने खूब ज़ोर लगाकर मुट्ठी खोली; पर उसमें कुछ न था। वह केवल कौतुक था। आह! उस कौतुक, उस क्रीड़ा में उसे अपने जीवन की व्याख्या छिपी हुई मालूम हो रही थी।


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