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प्रतिज्ञा

आता है, जिसे मैं कभी नहीं पढ़ती। इस घर में केवल एक ससुरजी हैं, जिन्हें ईश्वर ने हृदय दिया है और सब-के-सब पाषाण हैं। मैं तुमसे सत्य कहती हूँ बहन, मुझे इसका दुख नहीं है कि यह महाशय क्यों इतनी रात गये आते हैं, या उनका मन और किसी से अटका हुआ है। अगर आज मुझे मालूम हो जाय कि यह किसी रमणी पर लट्टू हो गये हैं, तो मेरा आधा क्लेश मिट जाय। मैं मूसरों से ढोल बजाऊँ। मुझे तो यह रोना है कि इनके हृदय नहीं। हृदय की जगह स्वार्थ का एक रोड़ा रखा हुआ है। न पुस्तकों से प्रेम, न सङ्गीत से प्रेम, न विनोद से प्रेम, प्रेम है पैसे से। मुझे तो विश्वास नहीं कि इन्हें सिनेमा में आनन्द आता हो। वहाँ भी कोई-न-कोई स्वार्थ है। लेन-देन, सवाये-ड्योड़े, घाटे नफ़े में इनके प्राण बसते हैं और मुझे इन बातों से घृणा है। कमरे में आते हैं, तो पहली बात जो उनके मुँह से निकलती है, वह यह है कि अभी तक बत्ती क्यों नहीं बुझाई। वह देखो, सवारी आ गई। अब घण्टे-दो-घरटे किफ़ायत का उपदेश सुनना पड़ेगा। यों मैं धन को तुच्छ नहीं समझती। सञ्चय करना अच्छी बात है; पर यह क्या कि आदमी धन का दास हो जाय। केवल इन्हें चिढ़ाने के लिए कुछ-न-कुछ फ़िजूल ख़र्चा किया करती हूँ। मज़ा तो यह है कि इन्हें अपने ही पैसों की प्रखर नहीं होती, मैं अपने पास से भी कुछ नहीं ख़र्चा कर सकती। पिताजी महीने में ४०), ५०) भेज देते हैं, इस घर में तो कानी कौड़ी भी न मिले। मेरी जो इच्छा होती है, करती हूँ। वह भी आप से नहीं देखा जाता। इस पर भी कई बार तकरार हो चुकी है। सोने लगना तो बत्ती बुझा देना बहन। जाती हूँ।

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