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प्रतिज्ञा

इधर पूर्णा के आने से सुमित्रा को मानो आँखें मिल गई। उसके साथ बात करने से सुमित्रा का जी ही न भरता। आधी-आधी रात तक बैठी, अपनी दुःख-कथा सुनाया करती। जीवन में उसका कोई सङ्गी न था। पति की निष्ठुरता नित्य ही उसके हृदय में चुभा करती थी। इस निष्ठुरता का कारण क्या है, यह समस्या उससे न हल होतो थी। वह बहुत सुन्दर न थी, फिर भी कोई उसे रूप-हीना न कह सकता था। बनाव-सिङ्गार का तो उसे मरज़ सा हो गया था पति के हृदय को पाने के लिए वह नित्य नया सिङ्गार करती थी और इस अभीष्ट के पूरे न होने से उसके हृदय में ज्वाला-सी दहकती रहती थी। घी के छीटों से झनकना तो ज्वाला का स्वाभाविक ही था, वह पानी के छीटों से भी झमकती थी। कमलाप्रसाद जब उससे अपना प्रेम जताते, तो उसके जी न आता, छाती में छुरी मार लूँ। घाव में यों ही क्या कम पीड़ा होती है कि कोई उस पर नमक छिड़के। आज से तीन साल पहले सुमित्रा ने कमला के पाकर अपने को धन्य माना था। दो-तीन महीने उसके दिन सुख से कटे; लेकिन ज्यों-ज्यों दोनो की प्रकृति का विरोध प्रकट होने लगा, दोनो एक-दूसरे से खिंचने लगे। सुमित्रा उदार थी, कमला पल्ले सिरे के कृपण। वह पैसे को ठोकरी समझती थी, कमला कौड़ियों को दाँत से पकड़ता था। सुमित्रा साधारण भिक्षुक को भिक्षा देने उठती तो इतना दे देती कि वह चुटकी की चरम सीमा का अतिक्रमण कर जाता था। उसके मैके से एक बार एक ब्राह्मणी कोई शुभ समाचार लाई थी। उसे उसने नई रेशमी साड़ी उठाकर दे दी। उधर कमला का यह हाल था कि भिक्षुक की आवाज़ सुनते ही गरज उठते थे, रूल उठाकर

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