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प्रबन्ध-पुष्पाञ्जलि

किसी किसी रात का दृश्य बड़ा ही मज़ेदार था। जिस समय पूरा चन्द्रबिम्ब आकाश में उदित होता था उस समय वह सारा प्रदेश दुग्धफेन के समान शुभ्र दिखलाई देता था। कभी कभी उत्तर की ओर, दूर, सफेद रोशनी का एक धुंधला पुञ्ज देख पड़ता था, जिस से मालूम होता था कि सूर्य ने अपना मुंँह ढाँप रक्खा है; तथापि वह यहीं पर कहीं प्रकाशित है। इस महा विस्तृत और महा आतड़क्जनक सफेद मैदान की शोभा मैं नहीं बयान कर सकता। उससे अधिक सौन्दर्य मय वस्तु मैंने संसार में दूसरी नहीं देखी। कुछ दूर पर बर्फ़ से ढके हुए ऊँचे ऊँचे पर्वत नज़र आते थे और आसमान को फाड़ कर उसके भीतर घुम जाने की चेष्टा सी करते थे। पास ही वह ज्वालामुखी पर्वत अपने अग्निवर्षो मुंँह से धुवाँ के प्रचण्ड पुञ्ज छोड़ रहा था। अहः, क्या ही हर्ष और विस्मय से भरा हुआ दृश्य था।

२२ अगस्त का सूर्य ने हम लोगों को अपने पुनदर्शन से फिर कृतार्थ किया। हम लोग तत्काल उसके दर्शन के लिए बाहर निकले। जिसने सूर्य के बहु-काल-व्यापी लोप का अनुभव नहीं किया वह कदापि नहीं जान सकता कि उसका पुनर्दशन कितना आनन्द दायक होता है। आकाश में अजीब रड़्गत धारण की; उसने बलात् हम लोगों के हृदय का हरण कर लिया। जितने जीव और जिसने पदार्थ के