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विस्यूवियस के विषम स्फोट

बर्षों में इस ज्वालामुखी पर्वतराज की फिर पहले की सी अवस्था हो गई। सब कहीं लतायें लटक गईं, घास से उसके शिखर लहलहे हो गये, अङ्गूर और शहतूत के उद्यान उसके आसपास उसकी शोभा बढ़ाने लगे। कितने ही गाँव बस गये। यह सब विस्यूवियस से देखा न गया। फिर भूडोल आरम्भ हुआ। छः महीने तक पृथ्वी हिलती रही। १६ दिसम्बर १६३१ ईसवी को फिर उदर-स्फोट हुआ। राख और पत्थर के समूह के समूह हृदय विदारी नाद करते हुए उड़ने लगे और सैकड़ों मील दूर जा जा कर गिरने लगे। यहाँ तक कि छोटे छोटे पत्थर कान्सैन्टिनोपल तक पहुँचे। भाफ के पानी की प्रचण्ड नदियाँ बन गईं। उनमें राख पत्थर मिल जाने से कीचड़ हो गया। कीचड़ के ये सर्वग्रास कारी भयावने नद बहे और अपीनाइन पर्वत के नीचे तक चले गये। इस बार गले हुए धातु और पत्थरों की अग्निरूपिणी नदियों के भी प्रबाह बहे, और महा भीषण रूप धारण करके पशु, पक्षी, मनुष्य, घास, फूस, वृक्ष, लता आदि को भस्म करते हुए बारह तेरह मुखों से समुद्र में आ गिरे। इस स्फोट में १८००० मनुष्यों का संहार हुआ।

जब से यह स्फोट हुआ तब से विस्यूवियस को पूरी शान्ति नहीं मिली। बीच बीच में आप आग, पत्थर, भाफ, राख उगलते ही रहे हैं। १७६६, १७६७, १७७९,