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बलरामपुर का खेदा

महाराजा के साथ थे। देरी से सब लोग घबरा उठे। किसी किसी से बिना बात किये रहा न गया। धीरे धीरे कानाफूसी होने लगी। यहाँ तक कि एक आध ने सोडावाटर की बोतलें तक फड़ाक फड़ाक खोल कर उनके भीतर की चीज़ को अपनी कण्ठ-नाल के भीतर पहुँचाया।

इस खेदे में अनेक शिकारी और सवारी के हाथी थे। इन हाथियों की पीठ पर केवल एक गद्दा रहता है। इससे बैठने वालों को जरा तकलीफ़ होती है। पुरुषों को तो उतनी तकलीफ नहीं होती, पर स्त्रियों को अधिक होती है। खेदे में कई कोमल कलेवरा मेमें भी थीं। जितना बोझ उनके बदन का न था, उससे अधिक बोझ उनके गौन वग़ैरह का था। इस बोझ के कारण, ओर हाथी के ऊपर बैठने के लिए हौदा न होने के भी कारण, उन बेचारियों को कुछ अधिक कष्ट हुआ।

सामने जङ्गल था। जितने शिकारी हाथी थे सब उसी तरफ, ध्यान से देख रहे थे। उन हाथियों पर जो लोग सवार थे वे भी सब अपने अपने काम के लिए मुस्तैद थे। जहाँ कोई जङ्गली हाथी देख पड़ता है तहाँ शिकारी हाथी उसके पीछे दोड़ता है। परन्तु कभी कभी वह उसके बराबर नहीं दोड़ सकता; पीछे जाता है। इस हालत में मुंँगरीवाला आदमी उसके पैरों में, या पूँछ के पास, मुंँगरी से मारता है। मुंँगरी