वैसा ही व्यवहार भी उनके साथ किया जाता है।
१८७४ में ब्रसेल्स की सभा में तै पाया था कि वही लोग
योद्धा समझे जायँ जो किसी जिम्मेदार अफ़सर के नेतृत्व
में हों, युद्ध के नियमों को जानते हों और किसी विशेष
चिन्ह से पहचाने जा सकते हों।
कुछ विशेष अवस्थाओं को छीड़ कर अन्य सब अवस्थाओं में शरण चाहने वाले शत्रुदल के योद्धाओं को शरण अवश्य दी जाती है। परन्तु शरण मिल जाने ही से शत्रु के योद्धा दण्ड से नहीं बच सकते। यदि शत्रु ने स्वयं ही युद्ध के नियम तोड़े हैं अथवा अपने विपक्षियों को शरण न देने की सम्मति प्रकट की है तो उसके योद्धाओं को भी दण्ड मिलता है। शत्रु यदि कोई ऐसा कठोर या नृशंस काम करता है जिसका बदला देना आवश्यक समझा जाता है तो इस कारण भी शरण में आये हुए उनके योद्धा दण्ड के पात्र समझे जा सकते हैं। गत चान जापान युद्ध में जापान ने शरण चाहने वाले शत्रु दल के प्रत्येक सैनिक को शरण दो थी। परन्तु एक दुर्घटना अवश्य हुई थी। वह यह थी कि पोटे आर्थर पर जापानियों का अधिकार हो जाने के बाद चार दिन तक नर हत्या हुई थी तथापि जापानियों के कथनानुसार उनके योद्धाओं ने यह नृशंसता नहीं की थी; किन्तु उनकी सेना के कुलियों ने शराब के नशे में की थी।