धर्म रूपी स्वातन्त्र्यशक्त्यात्मा स्व भाव की विचारणा को, वेदना कहते हैं-'वेदनानादिधमस्य परमात्मत्व वोधना (स्वच्छन्द तर ४-३९६) । पौराणिक युग मे विकल्प-दृष्टि का प्रभाव भी वेदना के अथ-परिसीमन का कारण है। फिर, वेदना यदि दुख ही है तो इस क्रियापदीया की सज्ञा वेद को क्या कहा जाय जो श्रेय प्रेय समन्वित ज्ञान की शाब्दी मूर्ति है ? सौगत विचारधारा मे वेदना मूल मे अलाछित है इन्द्रिय- विषय-सम्पर्कोदित प्रभाव द्वारा मानस के रजित होने से सुखावेदना और दुखावेदना का भिन अनुभव होता है । वहा इसकी अनुपश्यना अनाविल रूप मे स्वीकार की जाती है। किंबहुना वहाँ वेदना की एक अदुख और असुख मयी स्थिति भी व्याख्यात है (नन्दकोवाद सु० मज्झिम निमाय)। अस्तु, वेदना म केवल दुख के प्रति ही ग्राहकता नहीं सुख के लिये भी उमके पास अनुरोध, प्रतीक्षा और जिज्ञामा है नितराम, सुखानुसन्धान म यह व्याकुलतया घूमती है यह वात अन्य है कि पाती नही, यदि पाती तो वह भी उपजीव्य होता- वेदना विकल फिर आई मेरी चौदहो भुवन मे सुख कही न पडा दिखाई विश्राम कहाँ जीवन म । (आसू) वेदना अपने इस अनाविल अभिजात स्प मे प्रसाद-वाङ्गमय के मानवी और मानवतावादी सक्रप-विन्दु को अन्तर्योति बनी है जिसके आलोक मे मानव-मन की संवेदन विक्लता विपची बन कर जीवन की मधुरिमा ओर क्टुता के स्वर राग और विराग की सध्या मे सुनाती है । प्रसाद-वाङ्गमय के विकास मे ऐसी वेदना की उद्दीपर हेतुता वढती और क्रमश उदात्त स्तरो के खरसान पर चढ पैनी हो विकल्पो को ग्रन्थिया धाटती जाती है फिर अपने मौलिक रूपाववोध मे साहित्य को यथाथत परिभाषित कर प्रमाद वाङ्गमय कहता है-'दुख दग्ध जगत और आनन्द- पूर्ण स्वर्ग का एकीकरण माहित्य है।' सवदन और अनुभूति से गढे भावशिल्प की मुबरता प्रसाद भारती का सहेतुब विनियोग है विकल्प भयो वृतिया का वाग्विास नहीं। वह युग-सापप और सोद्देश्य है उसो चिन्तन-धाग निरपेश है। युग, प्रश्न-पक्षा होता है और कवि उत्तर पक्ष युग प्रश्न ही काव्य का वह निकप है जिस पर कवि के उत्तर को मुवण रेखा अपना मूल्य बताती है। प्राक्कथन ॥९॥
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१०
दिखावट