सुतराम निकट अतीत और समसामयिक वर्तमान की अवधि के, अर्थात् पिछलो शती और वतमान के प्राय प्रथम तीन दशो के प्रसंग इस सन्दभ म ध्यातव्य होगे जिसकी 'भूमि' पर प्रसाद वाङ्गमय का अकुरण पल्लवन हुआ है। प्राय १९०५ ई० से स्फुटित यह काव्याकुर १९३५ ई० तक महिमा मण्डित यनोच हो गया कामायनी पूरी हो गई । कवि के लिये कदाचित् अब कोई क्थ्य अवशिष्ट नही रहा ।' जिस विद्वव्यापी 'ध्रुवतारा' पर दृष्टि वाधे प्रसाद-वाङ्गमय का सयान अपने भाव-समुद्र का सतरण कर रहा था उसके आलोक म अव 'प्राणमादन वह मधुरमुख' सम्मुस था जिसके समक्ष जब बखरी स्वत निवृत्त हो जाती है तब बिखर ( देह ) की विद्यमानता का प्रश्न कहाँ ? भले ही जगत की तीखी मीठी वेदनाओ का खारा जलनिधि मचले और नियति के खोखले विवर मे 'चचल ग्रह' स्पी उसके इगित अपना परिमित 'सूनापथ नापा करें। सम्भवत इस मधुरमुख' और 'ध्रुवतारा का प्रसग स्फीत हो कवि की जोगन दृष्टि और उपलब्धि को आज और भी सुस्पष्ट करता, किन्तु, चिकित्सक निपेव ने उस अद्धी पेसिल को भी जब्त कर लिया जो पश्य ती का आलोक भार वहन करने म तव समथ न रह दवा की शीशियो जौर थर्मामीटर की नितान्त सहचारिणी बन गई थी। और ये पक्तियाँ स्वय एक विराट् प्रश्न के परात्पर उत्तर का उस मार्मिक उक्ति के माध्यम से चरम समाधान उपस्थित कर जाती हैं-'निर्मोह १ देहावसान समीप देख चिकित्सक ने कहा प्रसादजी आपको किसी से कुछ कहना हो तो कह लें' तब व उपघान सहारे शय्या पर बठे थे आगामा मुहूत्त के जथज्ञान से गर्भित मुख के प्रशा त भाव में उस अथ के प्रति उपेक्षा भरी स्मिति निखर उठी कहा- डाक्टर अब तक जा कहा वह क्या कम है । २ यक्ष्मा के असनिग्ध निदान हो जाने पर चिकित्सक ने कहा कि प्रसादजी आपकी पाकर डुआफोल्ड कलम बड़ी वजनी ह अभी कुछ समय इस विश्राम करने दें उत्तर मिला तो मेरे जेब वाली अद्धी पेंसिल हल्की ह । क्सिी कागत का एक छोटा टुकडा और आधी कटी पेंसिर उनकी जेब में होत थे प्राय । यद्यपि चिकित्सक्-परामश उन्हान माना और लिखने पढ़ने से विरत हो गय कि तु शेषगीत की इन पक्तियों के आधेय का, सच पूछा जाय तो निवृत्ति से कुछ दिना पूर्व माक्षात्कार हुआ। प्रथम पद म प्रकल्पन एव दूसर में प्रत्यक्षीकरण परस्पर अनुस्यूत है । प्रसाद वाङ्गमय ॥१०॥
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